अपने 2 माह के विदेश भ्रमण के पश्चात् फेसबुक समूहों को देखने पर पाया की अब पाठक अपनी प्रतिक्रिया देने में संकोच करने लगे हैं ? सोचा था भारत लौट कर 2 माह के अनुभवों का आदान प्रदान करेंगे। अपनी व्यवस्था की त्रुटियों को सुधारने के बिन्दुओं के साथ अपनी विशेषताओं का तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। इन सब पर चर्चा का भी विचार था ! किन्तु यहाँ तो प्रतिक्रियाहीन पाठकों की चुप्पी ने मुझे चकित कर दिया है ! ऐसा क्या हो गया इन 2 माह में कि सब सहमे सहमे से लगते हैं। यह सब देख कर लगता है जैसे फिल्म शहीद की वो पंक्तियाँ "एक से क्यों दूसरा करता नहीं कुछ बात है चुप तेरी महफ़िल में है, सरफरोशी की तमन्ना ..." वाली स्थिति बन गयी हो। और मेरी स्थिति आगे दौड़ पीछे छोड़ वाले बच्चे जैसी हो गई है। लगता है मेरे भारत को किसी दूसरे की नहीं अपनी ही सरकार के तन्त्र की बुरी नियति की नजर लगी है। जो संभवत: सरफरोशों के रक्त से ही धुलेगी। यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था, आज भी इसमें वह गुण, योग्यता व क्षमता विद्यमान है! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
रविवार, 26 अगस्त 2012
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