ऐ दिल तूँ हताश न हो !
देश की वर्तमान दुर्दशा से कई बार कई मित्र हताश हो जाते हैं
चल सभ्यता की ढहती दीवार से हम कहीं दूर चलें ये कहते हैं। मित्रो,
ऐ दिले बेकरार तू हताश न हो के ये दिन डूब गया,
रात भर का है मेहमान अँधेरा किसके रोके रुका है सवेरा।
दूर जाकर भी जब चैन नहीं पाया तब मेरे मित्र बताओ कहाँ जाओगे,
अच्छा या बुरा जैसा भी है समाज मेरा है सुधारना ही लक्ष्य है मेरा;
घर किराये का नहीं है मेरा अपना ही, साफ करने का सोचना है मुझे,
सोने की चिड़िया के पर नोच दिए दुष्टों ने, दवा इसको लगाना है मुझे।
"अंधेरों के जंगल में, दिया मैंने जलाया है |
इक दिया, तुम भी जलादो; अँधेरे मिट ही जायेंगे ||" युगदर्पण
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यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था, आज भी इसमें वह गुण, योग्यता व क्षमता विद्यमान है |
आओ मिलकर इसे बनायें; - तिलक