सूरत में शिवाजी की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने इनायत खाँ के स्थान पर गयासुद्दीन खां को सूरत का फौजदार नियुक्त किया । और शहजादा मुअज्जम तथा उपसेनापति राजा जसवंत सिंह की जगह दिलेर खाँ और राजा जयसिंह की नियुक्ति की गई । राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियाँ तथा छोटे सामन्तों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में शिवाजी को हानि होने लगी और हार की सम्भावना को देखते हुए शिवाजी ने सन्धि का प्रस्ताव भेजा । जून 1665 में हुई इस सन्धि के अनुसार शिवाजी 23 दुर्ग मुगलों को दे देंगे और इस तरह उनके पास केवल 12 दुर्ग बच जाएंगे । इन 23 दुर्गों से होने वाली वार्षिक आय 4 लाख हूण थी । बालाघाट और कोंकण के क्षेत्र शिवाजी को मिलेंगे पर उन्हें इसके बदले में 13 किस्तों में 40 लाख हूण अदा करने होंगे । इसके अलावा प्रतिवर्ष 5 लाख हूण का राजस्व भी वे देंगे । शिवाजी स्वयं औरंगजेब के दरबार में होने से मुक्त रहेंगे, पर उनके पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में सेवा करनी होगी । बीजापुर के विरुद्ध शिवाजी मुगलों का साथ देंगे
आगरा में आमंत्रण और पलायन
शिवाजी को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है । इसके विरुद्ध उन्होने अपना रोश भरे दरबार में दिखाया और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाया । औरंगजेब इससे क्षुब्ध हुआ और उसने शिवाजी को नज़रकैद कर दिया और उनपर 5000 सेनिको के पहरे लगा दिए ॥ कुछ ही दिनो बाद [18 अगस्त 1666 को] राजा शिवाजी को मार डालने का इरादा ओंरन्ग्जेब का था । किन्तु अपने अजोड साहस ओर युक्ति के साथ शिवाजी और सम्भाजी दोनों इससे भागने में सफल रहे [17 अगस्त 1666] । सम्भाजी को
मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ शिवाजी
बनारस,
गया,
पुरी होते हुए सकुशल राजगढ़ पहुँच गए [2 सप्टेम्बर 1666] । इससे मराठों को नवजीवन सा मिल गया । औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उसकी हत्या विष देकर करवा डाली । जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद सन् 1668 में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार संधि की । औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की मान्यता दी । शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5000 की मनसबदारी मिली और शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया । पर, सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुगलों का अधिपत्य बना रहा ।
सन् 1670 में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लूटा । नगर से 132 लाख की सम्पत्ति शिवाजी के हाथ लगी और लौटते समय उन्होंने मुगल सेना को सूरत के पास फिर से हराया।
राज्याभिषेक
शिवाजी का राज्याभिषेक
20 जून 1674 तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुगलों को देने पड़े थे ।
राजकाल | 1674–1680 |
राज्याभिषेक | 1674 |
जन्म | 19फरवरी, 1630 |
| शिवनेरी दुर्ग |
मृत्यु | 3 अप्रैल, 1680 |
| रायगढ़ |
पूर्वाधिकारी | शाहजी |
उत्तराधिकारी | सम्भाजी |
पिता | शाहजी |
माता | जीजाबाई |
पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु ब्राहमणों ने उनका घोर विरोध किया क्योकि वर्ण व्यवस्था के हिसाब से कुर्मी जाति उस समय शुद्र समझी जाती थी । शिवाजी के निजी सचिव बालाजी आवजी ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और उन्होंने ने काशी में गंगाभ नामक ब्राहमण के पास तीन दूतो को भेजा, किन्तु गंगा ने प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योकि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे। उसने कहा की क्षत्रियता का प्रमाण लाओ, तभी वह राज्याभिषेक करेगा | बालाजी आव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवाड़ के सिसोदिया वंश से समबंद्ध के प्रमाण भेजे जिससे संतुष्ट होकर वह रायगढ़ आया | किन्तु यहाँ आने के बाद जब उसने पुन: जाँच पड़ताल की तो उसने प्रमाणों को गलत पाया और राज्याभिषेक से मना कर दिया । अंतत: बाध्य होकर उसे एक लाख रुपये का प्रलोभन दिया गया तब उसने राज्याभिषेक किया । राज्याभिषेक के बाद भी पूना के ब्राहमणों ने शिवाजी को राजा मानने से मना कर दिया। विवश होकर शिवाजी को अष्टप्रधान मंडल की स्थापना करनी पड़ी
[2] । विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अतिरिक्त विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया । शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की । काशी के पण्डित विशेश्वर जी भट्ट को इसमें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था । पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया । इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार उनका राज्याभिषेक हुआ । दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए । इस समारोह में हिन्दू स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था ।
विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था । एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया । इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण विजय के लिए अपने दो सेनाधीशों को शिवाजी के विरूद्ध भेजा, पर वे असफल रहे ।
दक्षिण में दिग्विजय
मृत्यु और उत्तराधिकार
तीन सप्ताह की बीमारी के बाद शिवाजी की मृत्यु अप्रैल 1680 में हुई । उस समय शिवाजी के उत्तराधिकार शम्भाजी को मिले। शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र
शम्भाजी थे और दूसी पत्नी से राजाराम नामक एक दूसरा पुत्र था । उस समय
राजाराम की आयु मात्र 10 वर्ष थी, अतः मराठों ने शम्भाजी को राजा मान लिया । उस समय औरंगजेब राजा शिवाजी का देहान्त देखकर पूरे भारत पर राज्य करने की अपनी अभिलाशा से अपनी 5,00,000 सेना सागर लेकर दक्षिण भारत जीतने निकला । औरंगजेब ने दक्षिण मे आते ही अदिल्शाही 2 दिनो मे ओर कुतुबशही 1 ही दिनो मे खतम कर दी । पर राजा सम्भाजी के नेतृत्व मे मराठाओ ने 9 साल युद्ध करते हुये, अपनी स्वतन्त्रता बनाये रखी । औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर ने औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । शम्भाजी ने उसको अपने यहाँ शरण दी । औरंगजेब ने अब फिर जोरदार ढंग से शम्भाजी के विरुद्ध आक्रमण करना शुरु किया । उसने अंततः 1689 में ब्राह्मणो की मुखबरी से शम्बाजी को मुकरव खाँ द्वारा बन्दी बना लिया । औरंगजेब ने राजा सम्भाजी को दुर्व्यवहार व दुर्गति कर के मार दिया । अपने राजा को औरंगजेब के हाथ ऐसे मारा हुआ देखकर सभी मराठा स्वराज्य क्रोधित हुए । राजा राम के नेत्रुत्व मे उन्होने अपनी पूरी शक्ति से मुगलों से तीसरा संघर्ष जारी रखा । 1700 इस्वी में राजाराम की मृत्यु हो गई । उसके बाद राजाराम की पत्नी ताराबाई ने 4 वर्षीय पुत्र
शिवाजी द्वितीय की संरक्षिका बनकर राज करती रही । अंतत: 25 वर्ष मराठा स्वराज्य से यूदध लड के थके हुये औरंगजेब, उसी छ्त्रपती शिवाजी के स्वराज्य मे दफन हुये ।
व्यक्तित्व और शासन व्यवस्था
शिवाजी को एक कुशल और प्रबुद्ध सम्राट के रूप में जाना जाता है जब कि उसे अपने बचपन में पारम्परिक शिक्षा कुछ विशेष नहीं मिली थी । पर वह् भारतीय इतिहास और राजनीति में निपुण थे । उसने शुक्राचार्य तथा कौटिल्य को आदर्श मानकर कूटनीति का सहारा लेना, कई बार उचित समझा था । अपने समकालीन मुगलों की तरह वह् भी निरंकुश शासक थ, अर्थात शासन की समूची बागडोर राजा के हाथ में ही थी । पर उसके प्रशासकीय कार्यों में सहयोग के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद थी, जिन्हें
अष्टप्रधान कहा जाता था । इसमें मंत्रियों के प्रधान को
पेशवा कहते थे, जो राजा के बाद सबसे प्रमुख हस्ती था ।
अमात्य वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था, तो
मंत्री राजा की व्यक्तिगत दैनन्दिनी का ध्यान रखता था ।
सचिव कार्यालय का काम करते थे जिसमे शाही मुहर लगाना और सन्धि पत्रों का आलेख तैयार करना शामिल होते थे ।
सुमन्त विदेश मंत्री था । सेना के प्रधान को
सेनापति कहते थे । दान और धार्मिक मामलों के प्रमुख को
पण्डितराव कहते थे ।
न्यायाधीश न्यायिक मामलों का प्रधान था ।
छत्रपति शिवाजी द्वारा चलाया गया सिक्का
मराठा साम्राज्य तीन या चार विभागों में विभक्त था । प्रत्येक प्रान्त में एक सूबेदार था जिसे प्रान्तपति कहा जाता था । हरेक सूबेदार के पास भी एक अष्टप्रधान समिति होती थी । कुछ प्रान्त केवल करदाता थे और प्रशासन के मामले में स्वतंत्र । न्याय व्यवस्था प्राचीन पद्धति पर आधारित थी । शुक्राचार्य, कौटिल्य और हिन्दू धर्म शास्त्रों को आधार मानकर निर्णय दिया जाता था । गाँव के पाटील फौजदारी मुकदमों की जाँच करते थे । राज्य की आय का साधन भूमिकर था पर चौथ और सरदेशमुखी से भी राजस्व वसूला जाता था । चौथ पड़ोसी राज्यों की सुरक्षा की गारंटी के लिये वसूले जाने वाला कर था । और मराठों का सरदेशमुखी होने के कारण शिवाजी को इसी का सरदेशमुखी कर मिलता था ।
धार्मिक नीति
शिवाजी एक समर्पित कट्टर हिन्दु थे, पर वह् धार्मिक सहिष्णुता के पक्षपाती भी थे । उनके साम्राज्य में
मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता थी और मुसलमानों को धर्मपरिवर्तन के लिए विवश नहीं किया जाता था । कई
मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया । हिन्दू
पण्डितों की तरह मुसलमान सन्तों और फ़कीरों को भी सम्मान प्राप्त था । उनकी सेना में मुसलमानों की संख्या अधिक थी । पर वह् हिन्दू धर्म का संरक्षक थे । पारम्परिक हिन्दू मूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया जाता था । वह् अपने अभियानों का आरंभ भी अक्सर
दशहरा के अवसर पर करते थे
2. महाराजकी ओरसे देवीदेवता एवं देवालयोंकी रक्षाका कार्य संपन्न होना !
‘छत्रपति शिवाजी महाराजने पवित्र वेदों की रक्षा की । पुराणों की रक्षा की । जिव्हा द्वारा लिए जाने वाले सुंदर राम नाम को बचाया । हिंदुओं की चोटी की रक्षा की । सिपाहियों की रोटी बचाई । हिंदुओ के यज्ञोपवीत की रक्षा की तथा उनके गले की माला को बचाया । मुगलों को मसल दिया, पातशहाओं को नष्ट किया एवं शत्रुओं को रगड दिया । उनके हाथ में वरदान था । शिवराय ने अपनी तलवार के बल पर राजमर्यादा की रक्षा की । उन्होंने देवी देवता एवं देवालयों की रक्षा की । स्वराज्य में स्वधर्म की रक्षा की । उन्मत्त रावण के लिए जैसे प्रभु रामचंद्र, क्रूर कंस के लिए जैसे भगवान श्रीकृष्ण, वैसे यवनों के लिए छत्रपति शिवराय हैं’ - कवि भूषण
चरित्र
शिवाजी महाराज को अपने पिता से स्वराज कि शिक्षा ही मिली जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी राजे को बन्दी बना लिया तो एक आदर्श पुत्र की भांति उसने बीजापुर के शाह से सन्धि कर शाहजी राजे को छुड़वा लिया । इससे उनके चरित्र में एक उदार अवयव स्पष्ट होता है । उसके बाद उन्होने पिता की हत्या नहीं करवाई जैसा कि अन्य सम्राट किया करते थे । शाहजी राजे की मृत्यु के बाद ही उन्होने अपना राज्याभिषेक करवाया; जबकि वो उस समय तक अपने पिता से स्वतंत्र होकर एक बड़े साम्राज्य के अधिपति हो गये थे । उनके नेतृत्व को सब लोग स्वीकार करते थे, यही कारण है कि उनके शासनकाल में कोई आन्तरिक विद्रोह जैसी प्रमुख घटना नहीं हुई थी ।
वे एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे । कई जगहों पर उन्होने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय भाग लिये थे । किन्तु ये ही उनकी कूट नीति थी, जो हर बार बडे से बडे शत्रु को मात देने मे उनका साथ देती रही।
शिवाजी महाराज की "गनिमी कावा" नामक कूट नीति, जिसमे शत्रु पर अचानक आक्रमण करके उसे हराया जाता है, विलोभ नियत से और आदर सहित याद किया जाता है।
शिवाजी महाराज के गौरव मे ये पंक्तियां लिखी गई है :-
- "शिवरायांचे आठवावे स्वरुप । शिवरायांचा आठवावा साक्षेप ।
शिवरायांचा आठवावा प्रताप । भूमंडळी ॥"