मोदी के जन्मदिवस पर विशेष प्रस्तुति
राजनीति के शिखर पर ध्रुव प्रमं नरेन्द्र दामोदर दास मोदी
जीवन वृत तथा सभी पूर्ववर्ती मोदी पर २००२ में साम्प्रदायिकता का आरोप लगा, अब यह कि वे घूमते ही रहते हैं, की पड़ताल करते हैं वरिष्ठ पत्रकार -तिलक राज रेलन
आजादी के लंबे और रोमांचकारी क्रांतिकारी आंदोलन के परिणामस्वरूप देश 15 अगस्त 1947 को पराधीनता की बेड़ियों को काटकर स्वाधीन हुआ था। स्वतंत्र भारत के 7 दशक के इतिहास हुआ प्रधान मन्त्रियों का लेखाजोखा। मोदी को आरोपमुक्त यशस्वी स्थापित करने का प्रयास।
1 स्वाधीन भारत के अब तक के प्रधान मंत्री 2 मोदी का आरंभिक जीवन 3 पारिवारिक 4 राजनैतिक 5 सार्वजनिक जीवन उनपर लगे आरोपों की पड़ताल तथा परिणाम।
सरदार पटेल का त्याग जब लॉर्ड माउंटबेटन ने, जापान की सेनाओं के ब्रिटिश सेनाओं के सामने 15 अगस्त 1945 को (हिरोशिमा और नागासाकी की प्राणघाती बमवर्षा के पश्चात) आत्मसमर्पण की स्मृति में इस घटना की दूसरी वर्षगांठ 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्र करने की घोषणा जुलाई मध्य में की थी।
यह घोषणा अकस्मात की गई थी जिसके कई गंभीर परिणाम हमें भुगतने पड़े, परंतु यहां उनका उल्लेख आवश्यक नहीं है। जैसे ही देश के स्वतंत्र होने की घोषणा कर उसकी तिथि नियत की गई, वैसे ही प्रथम प्रधानमंत्री की खोज आरंभ हो गई। महात्मा गांधी की इच्छा पर सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपनी प्रधानमंत्री पद की प्रबल दावेदारी वापस ली और पंडित नेहरू को देश का प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया। यह सरदार पटेल का त्याग था।
देश के लोकतंत्र की पहली ईंट इस प्रकार सरदार पटेल के उस अनुपम और अद्वितीय त्याग पर रखी गई। यहां हम 15 अगस्त 1947 से अब तक कुल 13 प्रधानमंत्रियों के विषय में बताने का प्रयास कर रहे हैं कि अब तक के सारे प्रधानमंत्री भारत को कैसे मिले और उनका शासनकाल कब से कब तक का रहा?
पंडित जवाहरलाल नेहरू
गांधीवादी तथा स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी और गांधीजी के विद्वान शिष्य पंडित जवाहरलाल नेहरू पंडित मोतीलाल नेहरू के इकलौते पुत्र थे। 15 अगस्त 1947 से लेकर 27 मई 1964 तक लगभग 17 वर्ष इन्होंने देश पर शासन किया।
इससे पूर्व सितंबर 1946 में गठित हुई अंतरिम सरकार का नेतृत्व भी नेहरूजी ने ही किया था। इनकी पत्नी का नाम कमला नेहरू था जिनसे इन्हें इंदिरा प्रियदर्शिनी नामक पुत्री प्राप्त हुई।
स्वतंत्रता आंदोलन के मध्य नेहरूजी कई बार जेल गए। नेहरूजी अच्छे लेखक भी थे। इनकी कई पुस्तकें विश्वविख्यात रहीं। खंडित भारत 14 अगस्त 1947 की रात्रि 12 बजे स्वतंत्र हुआ।
स्वतंत्रता के तत्काल पश्चात हैदराबाद, जूनागढ़ और जम्मू-कश्मीर राज्यों की समस्या सामने आईं। सरदार पटेल अन्य 563 रियासतों का विलीनीकरण भारत के साथ कर चुके थे, किन्तु ये 3 रियासतें कुछ अधिक समस्या उत्पन्न कर रही थीं। तब सरदार पटेल ने हैदराबाद और जूनागढ़ की रियासत का सैनिक समाधान ढूंढ लिया और उन्हें भारत में विलीन कर दिया, किन्तु कश्मीर को नेहरूजी ने कुछ राजनीतिक कारणों से अपने पास रखा। तब से उलझी इस समस्या का समाधान अब तक नहीं हो पाया।
लालबहादुर शास्त्री 27 मई 1964 को भारत को पहली बार एक राजनेता के परलोकगमन पर धक्का लगा। अब देश की बागडोर किसे सौंपी जाए? यह यक्षप्रश्न अब देश के सामने था। तात्कालिक आधार पर उसी दिन यह दायित्व वरिष्ठ नेता गुलजारीलाल नंदा को सौंपा गया, जिन्होंने 13 दिन तक अर्थात 9 जून 1964 तक इस पद के दायित्वों का संपादन किया।
तत्पश्चात 9 जून 1964 को लालबहादुर शास्त्री को इस महान दायित्व के लिए विधिवत नेता निर्वाचित कर प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। इस छोटे कद के महान नेता ने मात्र 18 माह देश का सफल नेतृत्व किया। इस अल्पकाल में ही देश के इतिहास में शास्त्रीजी ने अपना स्थान स्वर्णाक्षरों में अंकित करा लिया।
उनके शासनकाल में पाकिस्तान ने 1965 में भारत पर आक्रमण कर दिया। शास्त्रीजी ने बड़े धैर्य के साथ उस युद्घ का सफल नेतृत्व किया। शांतिकाल में भारत के इस लाल को जहां बेचारा शास्त्री माना जाता था वहीं युद्घकाल के बेचारे शास्त्री को निर्भीक साहसी मानने के लिए उनके विरोधियों को भी विवश कर दिया।
युद्घ तो भारत जीत गया था, पर रूस ने और कुछ अन्य विश्व शक्तियों ने शास्त्रीजी को पाकिस्तान के साथ वार्ता करने के लिए विवश कर दिया। रूस के ताशकंद में वार्ता निश्चित की गई।
पाक सैनिक शासक अय्यूब के साथ बैठक आरंभ हुई। बैठक का क्रम कई दिनों तक चला। रूसी प्रधानमंत्री हर हाल में वार्ता को सफल कराना चाहते थे। अत: शास्त्री को बलात इस बात पर सहमत करा लिया कि भारत पाक के विजित क्षेत्रों को छोड़ देगा तथा युद्घ से पूर्व की स्थिति में दोनों देशों की सेनाएं चली जाएंगी। शास्त्रीजी के लिए यह बात बड़ी कष्टप्रद थी, इसलिए उस देशभक्त प्रधानमंत्री को इस शर्त को मानने पर गहरा सदमा लगा।
अत: 11 जनवरी 1966 की रात्रि में उन्हें संदेहास्पद परिस्थितियों में ताशकंद में ही हृदयाघात पड़ा और वे चल बसे। रूस के प्रधानमंत्री कोसिगिन ने अपने देश से भारत के इस महान सपूत को कंधा देकर विदा किया और उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित हुए।
उनकी समाधि का नाम विजय घाट (दिल्ली) है। मोरारजी देसाई ने शास्त्रीजी को प्रधानमंत्री बनते समय चुनौती दी थी। प्रधानमंत्री बनने से पूर्व वे गृहमंत्री भी रहे। नेहरूजी ने उन्हें निर्विभागीय मंत्री बनाकर अपना एक तरह से उत्तराधिकारी ही बना दिया था। उनकी नेतृत्व क्षमता और सादगी को देश आज तक श्रद्घा से स्मरण करता है।
नेहरूजी कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान नहीं कर पाए। इनके शासनकाल में लोकतांत्रिक मूल्यों का समुचित विकास हुआ। नेहरूजी ने संसद को पूरा समय और सम्मान देने का प्रयास किया। गांधीवादी अहिंसा को इन्होंने उसी प्रकार अपनाया जिस प्रकार सम्राट अशोक ने अपने धर्मगुरु महात्मा बुद्घ की अहिंसा को अपनाया था, फलस्वरूप देश को चीन के हमले का अपमानजनक सामना करना पड़ा।
नेहरूजी ने देश के समग्र विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएं चलाईं और अनेक महत्वाकांक्षी योजनाओं का शुभारंभ किया। 1962 के चीनी आक्रमण ने इन्हें तोड़ दिया, फलस्वरूप इन्हें लकवा हो गया तथा 27 मई 1964 को वे संसार से चल बसे। उनकी समाधि का नाम शांतिवन है, जो दिल्ली में यमुना तट पर है।
गुलजारीलाल लाल नंदा
दो बार देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने। 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद उन्हें कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया और 1966 में लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद देश का कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। इनका कार्यकाल दोनों बार उसी समय तक सीमित रहा जब तक की कांग्रेस पार्टी ने अपने नए नेता का चयन नहीं कर लिया।
इंदिरा गांधी
11 जनवरी 1966 को शास्त्रीजी के निधन के पश्चात वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कामराज के हस्तक्षेप से गुलजारीलाल नंदा को ही पुन: देश का कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। कामराज चाहते थे कि देश के नए नेता का चुनाव सर्वसम्मति से हो जाए।
कामराज ने इसके लिए कांग्रेस के भीतर नेता ढूंढने के प्रयास भी किए किन्तु मोरारजी देसाई ने पुन: उनके प्रयासों को चुनौती दी। कांग्रेस के अधिकांश नेताओं ने पंडित नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को मैदान में लाकर खड़ा किया और उन्होंने मोरारजी देसाई को भारी मतों से पराजित कर दिया। तत्पश्चात देश के राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने इंदिराजी को 24 जनवरी 1966 को देश के तीसरे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई।
इंदिरा ने प्रधानमंत्री बनने से पूर्व संगठन के विभिन्न दायित्व निभाए थे। वे कांग्रेस की अध्यक्ष भी रहीं। शास्त्रीजी ने उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया था। इस प्रकार उनके पास एक अच्छा अनुभव था, परंतु फिर भी उनका पहला भाषण कॉलेज की एक छात्रा जैसा ही था।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण इंदिराजी के काल में ही किया गया। राजाओं के प्रीविपर्स बंद किए गए। कांग्रेस का विभाजन हुआ। वीवी गिरि को उन्होंने देश का अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनाया। इलाहाबाद उच्च न्याया के निर्णय से भयभीत इंदिराजी ने देश में आपातकाल की घोषणा कराई।
इससे पूर्व जब 1971 में भारत और पाक युद्घ हुआ तो एक चंडी के रूप में उन्होंने युद्घ का संचालन किया। अटलजी ने तब उन्हें 'चंडी' की उपाधि दी थी। 93,000 हजार पाक सैनिकों ने हमारे सामने हथियार डाल दिए। इतनी बड़ी सेना ने विश्व इतिहास में पहली बार आत्मसमर्पण किया।
इसी मध्य बांग्लादेश का विश्व मानचित्र पर एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जन्म हुआ। पाकिस्तान के साथ 1972 में शिमला समझौता किया गया। पाकिस्तान के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो ने नाक रगड़कर इंदिराजी से कहा था कि मैडम अबकी बार छोड़ दो, फिर कभी ऐसी गलती नहीं करेंगे।
किन्तु 25 जून 1975 की रात्रि में लगे आपातकाल ने इंदिराजी को गलत दिशा में मोड़ दिया। उससे पूर्व देश उनके साथ था। इससे उनका आत्मविश्वास डगमगा गया था और वे वस्तुस्थिति का आकलन नहीं कर पाईं। फलस्वरूप देश की जनता ने उनका साथ छोड़ दिया और 1977 में चुनाव हुए, तो वे पराजित हो गईं।
इसके बाद वे अपनी सखी पुपुल जयकर के कंधे पर सिर रखकर रोने लगीं और कहने लगीं कि पुपुल मैं हार गई। 1980 में उन्होंने फिर इतिहास रचा। सत्ता में उनकी भव्य वापसी हुई। इस बार उन्होंने एशियाई खेलों का आयोजन 1982 में दिल्ली में कराया, जबकि इसी वर्ष 101 देशों की गुटनिरपेक्ष देशों की नेता भी बनीं।
इंदिराजी के समय में पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन ने बल पकड़ा। स्वर्ण मंदिर, अमृतसर में सेना भेजने के लिए उन्होंने राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह से रात्रि में उसी प्रकार हस्ताक्षर कराए, जैसे फखरुद्दीन अली अहमद से रात में जाकर आपातकाल के पत्रों पर कराए थे।
ज्ञानी जैलसिंह को इस बात का गहरा दुख रहा था। बाद में पद मुक्त होने पर उन्होंने स्वर्ण मंदिर में जाकर क्षमा-याचना की थी। इंदिराजी ब्लू स्टार ऑपरेशन (पंजाब में हुई सैनिक कार्रवाई) की सबसे बड़ी शहीद बनीं। 31 अक्टूबर 1984 को उनके अंगरक्षकों ने उन्हें गोली मारकर शहीद कर दिया।
एक महान नेता से देश वंचित हो गया। इससे पूर्व उनके बेटे संजय गांधी की एक हवाई जहाज दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। इसके बाद उन्होंने अपने पायलट बेटे राजीव गांधी को अपना वारिस बनाने के लिए राजनीति में प्रवेश दिलाया था। अब वही उनके वारिस थे।
मोरारजी देसाई
नकारात्मक भांड मीडिया जो असामाजिक तत्वों का महिमामंडन करे,
उसका सकारात्मक व्यापक विकल्प का सार्थक संकल्प, प्रेरक राष्ट्र नायको का यशगान
-युगदर्पण मीडिया समूह YDMS - तिलक संपादक
यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था,
आज भी इसमें वह गुण,
योग्यता व क्षमता विद्यमान है |तत्पश्चात 9 जून 1964 को लालबहादुर शास्त्री को इस महान दायित्व के लिए विधिवत नेता निर्वाचित कर प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। इस छोटे कद के महान नेता ने मात्र 18 माह देश का सफल नेतृत्व किया। इस अल्पकाल में ही देश के इतिहास में शास्त्रीजी ने अपना स्थान स्वर्णाक्षरों में अंकित करा लिया।
उनके शासनकाल में पाकिस्तान ने 1965 में भारत पर आक्रमण कर दिया। शास्त्रीजी ने बड़े धैर्य के साथ उस युद्घ का सफल नेतृत्व किया। शांतिकाल में भारत के इस लाल को जहां बेचारा शास्त्री माना जाता था वहीं युद्घकाल के बेचारे शास्त्री को निर्भीक साहसी मानने के लिए उनके विरोधियों को भी विवश कर दिया।
युद्घ तो भारत जीत गया था, पर रूस ने और कुछ अन्य विश्व शक्तियों ने शास्त्रीजी को पाकिस्तान के साथ वार्ता करने के लिए विवश कर दिया। रूस के ताशकंद में वार्ता निश्चित की गई।
पाक सैनिक शासक अय्यूब के साथ बैठक आरंभ हुई। बैठक का क्रम कई दिनों तक चला। रूसी प्रधानमंत्री हर हाल में वार्ता को सफल कराना चाहते थे। अत: शास्त्री को बलात इस बात पर सहमत करा लिया कि भारत पाक के विजित क्षेत्रों को छोड़ देगा तथा युद्घ से पूर्व की स्थिति में दोनों देशों की सेनाएं चली जाएंगी। शास्त्रीजी के लिए यह बात बड़ी कष्टप्रद थी, इसलिए उस देशभक्त प्रधानमंत्री को इस शर्त को मानने पर गहरा सदमा लगा।
अत: 11 जनवरी 1966 की रात्रि में उन्हें संदेहास्पद परिस्थितियों में ताशकंद में ही हृदयाघात पड़ा और वे चल बसे। रूस के प्रधानमंत्री कोसिगिन ने अपने देश से भारत के इस महान सपूत को कंधा देकर विदा किया और उनके अंतिम संस्कार में सम्मिलित हुए।
उनकी समाधि का नाम विजय घाट (दिल्ली) है। मोरारजी देसाई ने शास्त्रीजी को प्रधानमंत्री बनते समय चुनौती दी थी। प्रधानमंत्री बनने से पूर्व वे गृहमंत्री भी रहे। नेहरूजी ने उन्हें निर्विभागीय मंत्री बनाकर अपना एक तरह से उत्तराधिकारी ही बना दिया था। उनकी नेतृत्व क्षमता और सादगी को देश आज तक श्रद्घा से स्मरण करता है।
नेहरूजी कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान नहीं कर पाए। इनके शासनकाल में लोकतांत्रिक मूल्यों का समुचित विकास हुआ। नेहरूजी ने संसद को पूरा समय और सम्मान देने का प्रयास किया। गांधीवादी अहिंसा को इन्होंने उसी प्रकार अपनाया जिस प्रकार सम्राट अशोक ने अपने धर्मगुरु महात्मा बुद्घ की अहिंसा को अपनाया था, फलस्वरूप देश को चीन के हमले का अपमानजनक सामना करना पड़ा।
नेहरूजी ने देश के समग्र विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएं चलाईं और अनेक महत्वाकांक्षी योजनाओं का शुभारंभ किया। 1962 के चीनी आक्रमण ने इन्हें तोड़ दिया, फलस्वरूप इन्हें लकवा हो गया तथा 27 मई 1964 को वे संसार से चल बसे। उनकी समाधि का नाम शांतिवन है, जो दिल्ली में यमुना तट पर है।
गुलजारीलाल लाल नंदा
दो बार देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने। 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद उन्हें कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया और 1966 में लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद देश का कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। इनका कार्यकाल दोनों बार उसी समय तक सीमित रहा जब तक की कांग्रेस पार्टी ने अपने नए नेता का चयन नहीं कर लिया।
इंदिरा गांधी
11 जनवरी 1966 को शास्त्रीजी के निधन के पश्चात वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कामराज के हस्तक्षेप से गुलजारीलाल नंदा को ही पुन: देश का कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। कामराज चाहते थे कि देश के नए नेता का चुनाव सर्वसम्मति से हो जाए।
कामराज ने इसके लिए कांग्रेस के भीतर नेता ढूंढने के प्रयास भी किए किन्तु मोरारजी देसाई ने पुन: उनके प्रयासों को चुनौती दी। कांग्रेस के अधिकांश नेताओं ने पंडित नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को मैदान में लाकर खड़ा किया और उन्होंने मोरारजी देसाई को भारी मतों से पराजित कर दिया। तत्पश्चात देश के राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने इंदिराजी को 24 जनवरी 1966 को देश के तीसरे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई।
इंदिरा ने प्रधानमंत्री बनने से पूर्व संगठन के विभिन्न दायित्व निभाए थे। वे कांग्रेस की अध्यक्ष भी रहीं। शास्त्रीजी ने उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया था। इस प्रकार उनके पास एक अच्छा अनुभव था, परंतु फिर भी उनका पहला भाषण कॉलेज की एक छात्रा जैसा ही था।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण इंदिराजी के काल में ही किया गया। राजाओं के प्रीविपर्स बंद किए गए। कांग्रेस का विभाजन हुआ। वीवी गिरि को उन्होंने देश का अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनाया। इलाहाबाद उच्च न्याया के निर्णय से भयभीत इंदिराजी ने देश में आपातकाल की घोषणा कराई।
इससे पूर्व जब 1971 में भारत और पाक युद्घ हुआ तो एक चंडी के रूप में उन्होंने युद्घ का संचालन किया। अटलजी ने तब उन्हें 'चंडी' की उपाधि दी थी। 93,000 हजार पाक सैनिकों ने हमारे सामने हथियार डाल दिए। इतनी बड़ी सेना ने विश्व इतिहास में पहली बार आत्मसमर्पण किया।
इसी मध्य बांग्लादेश का विश्व मानचित्र पर एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जन्म हुआ। पाकिस्तान के साथ 1972 में शिमला समझौता किया गया। पाकिस्तान के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो ने नाक रगड़कर इंदिराजी से कहा था कि मैडम अबकी बार छोड़ दो, फिर कभी ऐसी गलती नहीं करेंगे।
किन्तु 25 जून 1975 की रात्रि में लगे आपातकाल ने इंदिराजी को गलत दिशा में मोड़ दिया। उससे पूर्व देश उनके साथ था। इससे उनका आत्मविश्वास डगमगा गया था और वे वस्तुस्थिति का आकलन नहीं कर पाईं। फलस्वरूप देश की जनता ने उनका साथ छोड़ दिया और 1977 में चुनाव हुए, तो वे पराजित हो गईं।
इसके बाद वे अपनी सखी पुपुल जयकर के कंधे पर सिर रखकर रोने लगीं और कहने लगीं कि पुपुल मैं हार गई। 1980 में उन्होंने फिर इतिहास रचा। सत्ता में उनकी भव्य वापसी हुई। इस बार उन्होंने एशियाई खेलों का आयोजन 1982 में दिल्ली में कराया, जबकि इसी वर्ष 101 देशों की गुटनिरपेक्ष देशों की नेता भी बनीं।
इंदिराजी के समय में पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन ने बल पकड़ा। स्वर्ण मंदिर, अमृतसर में सेना भेजने के लिए उन्होंने राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह से रात्रि में उसी प्रकार हस्ताक्षर कराए, जैसे फखरुद्दीन अली अहमद से रात में जाकर आपातकाल के पत्रों पर कराए थे।
ज्ञानी जैलसिंह को इस बात का गहरा दुख रहा था। बाद में पद मुक्त होने पर उन्होंने स्वर्ण मंदिर में जाकर क्षमा-याचना की थी। इंदिराजी ब्लू स्टार ऑपरेशन (पंजाब में हुई सैनिक कार्रवाई) की सबसे बड़ी शहीद बनीं। 31 अक्टूबर 1984 को उनके अंगरक्षकों ने उन्हें गोली मारकर शहीद कर दिया।
एक महान नेता से देश वंचित हो गया। इससे पूर्व उनके बेटे संजय गांधी की एक हवाई जहाज दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। इसके बाद उन्होंने अपने पायलट बेटे राजीव गांधी को अपना वारिस बनाने के लिए राजनीति में प्रवेश दिलाया था। अब वही उनके वारिस थे।
मोरारजी देसाई
इंदिरा गांधी के लिए देश में आपातकाल लगाना महंगा पड़ा। देश में विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, प्रेस और जनसाधारण के साथ कितने ही अमानवीय कार्य हुए। फलस्वरूप देश की जनता इंदिरा के प्रति विद्रोही हो गई। समय के सच को विपक्ष ने समझा और उस समय के पांच बड़े विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी नामक नया राजनीतिक दल बनाया।
इंदिरा गांधी ने 1977 में चुनावों की घोषणा कर दी। लोगों ने अपना जनादेश जनता पार्टी को दिया। 29 फरवरी 1896 को गुजरात के भदेली स्थान में जन्मे कट्टर सिद्घांतवादी माने जाने वाले मोरारजी देसाई ने 23 मार्च 1977 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। जनता पार्टी ने संसद में 542 में से 330 सीटें प्राप्त कीं।
विभिन्न महत्वाकांक्षी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और अहंकार का शिकार जनता पार्टी बनने लगी थी। इसलिए अंतर्कलह का परिवेश सरकार में दिखने लगा। विदेश मंत्री के रूप में अटलबिहारी वाजपेयी तो गृहमंत्री के रूप में चौधरी चरणसिंह अपनी महत्वाकांक्षा पालने लगे। मोरारजी घटक दलों को एकसाथ रखने में निरंतर असफल होते जा रहे थे।
यद्यपि उन्होंने गैर-कांग्रेसी और नेहरू-गांधी परिवारवाद से अलग हटकर पहली बार शानदार इतिहास बनाया था। वे देश में पहली बार गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने थे। मोरारजी देसाई सत्यनिष्ठ भारतीय संस्कृति के पोषक और उसकी समृद्धिशाली परंपराओं के उद्भट प्रस्तोता थे। मोरारजी का शानदार नेतृत्व जनता पार्टी के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं में दबकर रह गया जिससे देश एक ऊर्जावान नेता के नेतृत्व से शीघ्र ही वंचित हो गया।
इसराइल के तत्कालीन विदेशमंत्री ने उनके समय में भारत की यात्रा की थी जिन्होंने पाकिस्तान में परमाणुप्रहार करके भारत की कश्मीर समस्या के हल में अपनी भूमिका का प्रस्ताव रखा था। किन्तु मोरारजी देसाई ने संभावित जनहानि के दृष्टिगत इसराइल के विदेशमंत्री का यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था। पाकिस्तान को जब बात पता चलने पर उसने मोरारजी को अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया था।
मोरारजी 81 वर्ष की वृद्धावस्था में देश के प्रधानमंत्री बने थे। फिर भी उनकी आयु कभी उनके कार्यों में बाधक नहीं बनी थी। वे संयमित जीवनशैली के व्यक्ति थे इसलिए लगभग 100 वर्ष की अवस्था भोगकर 1995 में उनका निधन हुआ था।
इंदिरा गांधी ने 1977 में चुनावों की घोषणा कर दी। लोगों ने अपना जनादेश जनता पार्टी को दिया। 29 फरवरी 1896 को गुजरात के भदेली स्थान में जन्मे कट्टर सिद्घांतवादी माने जाने वाले मोरारजी देसाई ने 23 मार्च 1977 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। जनता पार्टी ने संसद में 542 में से 330 सीटें प्राप्त कीं।
विभिन्न महत्वाकांक्षी नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और अहंकार का शिकार जनता पार्टी बनने लगी थी। इसलिए अंतर्कलह का परिवेश सरकार में दिखने लगा। विदेश मंत्री के रूप में अटलबिहारी वाजपेयी तो गृहमंत्री के रूप में चौधरी चरणसिंह अपनी महत्वाकांक्षा पालने लगे। मोरारजी घटक दलों को एकसाथ रखने में निरंतर असफल होते जा रहे थे।
यद्यपि उन्होंने गैर-कांग्रेसी और नेहरू-गांधी परिवारवाद से अलग हटकर पहली बार शानदार इतिहास बनाया था। वे देश में पहली बार गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने थे। मोरारजी देसाई सत्यनिष्ठ भारतीय संस्कृति के पोषक और उसकी समृद्धिशाली परंपराओं के उद्भट प्रस्तोता थे। मोरारजी का शानदार नेतृत्व जनता पार्टी के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं में दबकर रह गया जिससे देश एक ऊर्जावान नेता के नेतृत्व से शीघ्र ही वंचित हो गया।
इसराइल के तत्कालीन विदेशमंत्री ने उनके समय में भारत की यात्रा की थी जिन्होंने पाकिस्तान में परमाणुप्रहार करके भारत की कश्मीर समस्या के हल में अपनी भूमिका का प्रस्ताव रखा था। किन्तु मोरारजी देसाई ने संभावित जनहानि के दृष्टिगत इसराइल के विदेशमंत्री का यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था। पाकिस्तान को जब बात पता चलने पर उसने मोरारजी को अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया था।
मोरारजी 81 वर्ष की वृद्धावस्था में देश के प्रधानमंत्री बने थे। फिर भी उनकी आयु कभी उनके कार्यों में बाधक नहीं बनी थी। वे संयमित जीवनशैली के व्यक्ति थे इसलिए लगभग 100 वर्ष की अवस्था भोगकर 1995 में उनका निधन हुआ था।
चौधरी चरण सिंह
चौधरी चरण सिंह की महत्वाकांक्षा से मोरारजी देसाई को सबसे अधिक दो-चार होना पड़ा था। उन्होंने इंदिरा गांधी का सबसे अधिक उत्पीड़न किया। किन्तु पराजय से टूटी हुई इंदिरा ने जब जनता पार्टी नेताओं की दाल जूतों में बंटती देखी तो उन्होंने चौधरी चरण सिंह को मोरारजी के विरुद्ध उकसाना आरंभ कर दिया।
नितांत ईमानदार, सत्यनिष्ठ, स्वाभिमानी और किसानों के नेता के रूप में ख्यातिप्राप्त चौधरी साहब इंदिरा गांधी की राजनीति में फंस गए। चौधरीजी ने जनता पार्टी से बगावत कर दी। तब 28 जुलाई 1979 को उन्होंने किसान के पहले बेटे के रूप में केंद्र में सरकार बनाई। उन्हें बाहर से समर्थन देने का कांग्रेस ने वादा किया।
कांग्रेस (यू), समाजवादी पार्टियों व भारतीय लोकदल के नेता के रूप में चौधरी साहब ने प्रधानमंत्री पद की शपथ तो ले ली किन्तु कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया। अत: चौधरी साहब ने संसद में अपना बहुमत सिद्ध करने से 1 दिन पहले ही 19 अगस्त 1979 को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।
इंदिराजी ने उन पर दबाव डाला था कि वे उनके विरुद्ध बैठे आयोगों को समाप्त करें और उन्हें दोषमुक्त करें। पर स्वाभिमानी चरणसिंह इस बात पर अपनी आत्मा का सौदा नहीं कर पाए, फलस्वरूप उनकी सरकार गिर गई। पर चौधरी साहब का लाल किले पर एक बार झंडा फहराने का अपना सपना अवश्य पूरा हो गया।
23 दिसंबर 1902 को मेरठ जिले के नूरपुर गांव में जन्मे चौधरी साहब ने सार्वजनिक जीवन में विभिन्न पदों को सुशोभित किया। वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने थे, केंद्र में गृहमंत्री भी रहे। एक अच्छे अधिवक्ता से, अपने जीवन का प्रारंभ किया और ऊंचाई तक पहुंचे।
29 मई 1987 को उनके जीवन का भव्य अंत हुआ। उनकी समाधि को दिल्ली में किसान घाट के नाम से जाना जाता है। उनकी ईमानदारी और राष्ट्रभक्ति का सब लोग लोहा मानते थे। वे स्पष्टवादी थे।
चौधरी चरण सिंह की महत्वाकांक्षा से मोरारजी देसाई को सबसे अधिक दो-चार होना पड़ा था। उन्होंने इंदिरा गांधी का सबसे अधिक उत्पीड़न किया। किन्तु पराजय से टूटी हुई इंदिरा ने जब जनता पार्टी नेताओं की दाल जूतों में बंटती देखी तो उन्होंने चौधरी चरण सिंह को मोरारजी के विरुद्ध उकसाना आरंभ कर दिया।
नितांत ईमानदार, सत्यनिष्ठ, स्वाभिमानी और किसानों के नेता के रूप में ख्यातिप्राप्त चौधरी साहब इंदिरा गांधी की राजनीति में फंस गए। चौधरीजी ने जनता पार्टी से बगावत कर दी। तब 28 जुलाई 1979 को उन्होंने किसान के पहले बेटे के रूप में केंद्र में सरकार बनाई। उन्हें बाहर से समर्थन देने का कांग्रेस ने वादा किया।
कांग्रेस (यू), समाजवादी पार्टियों व भारतीय लोकदल के नेता के रूप में चौधरी साहब ने प्रधानमंत्री पद की शपथ तो ले ली किन्तु कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया। अत: चौधरी साहब ने संसद में अपना बहुमत सिद्ध करने से 1 दिन पहले ही 19 अगस्त 1979 को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।
इंदिराजी ने उन पर दबाव डाला था कि वे उनके विरुद्ध बैठे आयोगों को समाप्त करें और उन्हें दोषमुक्त करें। पर स्वाभिमानी चरणसिंह इस बात पर अपनी आत्मा का सौदा नहीं कर पाए, फलस्वरूप उनकी सरकार गिर गई। पर चौधरी साहब का लाल किले पर एक बार झंडा फहराने का अपना सपना अवश्य पूरा हो गया।
23 दिसंबर 1902 को मेरठ जिले के नूरपुर गांव में जन्मे चौधरी साहब ने सार्वजनिक जीवन में विभिन्न पदों को सुशोभित किया। वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने थे, केंद्र में गृहमंत्री भी रहे। एक अच्छे अधिवक्ता से, अपने जीवन का प्रारंभ किया और ऊंचाई तक पहुंचे।
29 मई 1987 को उनके जीवन का भव्य अंत हुआ। उनकी समाधि को दिल्ली में किसान घाट के नाम से जाना जाता है। उनकी ईमानदारी और राष्ट्रभक्ति का सब लोग लोहा मानते थे। वे स्पष्टवादी थे।
राजीव गांधी
राजीव गांधी देश के छठे प्रधानमंत्री बने थे। 31 अक्टूबर 1984 की शाम 6.15 बजे उन्हें राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने शपथ दिलाई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से देश की परिस्थितियां ऐसी थीं कि किसी कार्यवाहक प्रधानमंत्री की आवश्यकता न समझते हुए राजीव को ही प्रधानमंत्री बनाया गया।
यद्यपि वरिष्ठ मंत्री प्रणब मुखर्जी उस समय प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे और मीडिया ने उनकी जीवनी तक को बताना आरम्भ कर दिया था किन्तु वे शालीनता से परिस्थितियों को समझ गए और पीछे हट गए।
राजीव गांधी देश के सबसे पहले युवा प्रधानमंत्री बने। इंदिराजी जब प्रधानमंत्री बनी थीं तो उस समय उनकी अवस्था 49 वर्ष की थी, जबकि राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने तो उस समय उनकी अवस्था 40 वर्ष की थी। राजीव के प्रधानमंत्री बनने पर युवाओं में विशेष उत्साह जागृत हुआ।
राजीव ने भी मतदान के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी थी। देश की जनता ने 1985 के आम चुनावों में उन्हें प्रचंड बहुमत दिया। 543 में से 415 सीटें उन्हें लोकसभा में मिलीं। राजीव गांधी के लिए यह अबूझ पहेली आज तक बनी हुई है कि वे राजनीति के योग्य नहीं थे या राजनीति उनके योग्य नहीं थी।
राजीव गांधी भद्रपुरुष थे, ईमानदार थे, प्रगतिशील थे किन्तु तब तक राजनीति में इन गुणों का सम्मान कम हो गया था। उनकी अनुभवशून्यता उनके आड़े आई और उनके लोग उनकी जड़ें खोदने लगे। पायलट की नौकरी छोड़कर वे राजनीति में आए थे और अपनी पत्नी सोनिया के साथ राजनीति से दूर रहना ही पसंद करते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी अनिर्णय की स्थिति में रहे।
उनकी अनुभवशून्यता और मां के आकस्मिक निधन ने देश में सिखों की हत्याओं का खेल शुरू करा दिया। दुखी राजीव सक्षम कार्रवाई नहीं कर पाए। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने पर पंजाब समझौता किया, उसके पश्चात असम समझौता। इन दोनों समझौतों से पंजाब व पूर्वोत्तर की हिंसक गतिविधियों में रुकावट आई।
इसके पश्चात श्रीलंका में उन्होंने भारतीय सेना भेजी। भारत की सेना ने वहां भारत के ही तमिलों पर अत्याचार करने आरंभ किए, तो तमिल समुदाय राजीव के प्रति घृणा से भर गया।
इधर देश में बोफोर्स तोपों में दलाली खाने के कथित आरोपों से कांग्रेस की स्थिति दिन- प्रतिदिन दुर्बल होती जा रही थी। वी.पी. सिंह रातोरात नायक बनते जा रहे थे। उन्होंने राजीव की राजनीतिक कब्र खोद दी और उन्हें सत्ता से दूर कर दिया। बाद में सिद्ध हुआ कि राजीव सचमुच निर्दोष थे, किन्तु तब तक उन्हें दंड मिल चुका था।
दूसरी ओर रुष्ट तमिल लोगों ने उनकी हत्या का षड्यंत्र रचा और 21 मई 1991 को जब चुनाव का काल चल रहा था तो तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदूर में उनकी निर्मम हत्या कर दी गई। उन्होंने भारत में टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। कम्प्यूटर क्रांति, पेयजल की उपलब्धता, साक्षरता मिशन, श्वेत क्रांति, खाद्य तेल मिशन, गांव-गांव में टेलीफोन की व्यवस्था पंचायती राज, महिला उत्थान आदि के क्षेत्रों में विशेष कार्य किए।
दक्षेस संगठन की स्थापना राजीव गांधी ने की थी। चीन की यात्रा कर उसका दृष्टिकोण भारत के प्रति बदलने में किसी सीमा तक सफलता भी प्राप्त की। वे 31 अक्टूबर 1984 से 2 दिसंबर 1989 तक प्रधानमंत्री रहे।
राजीव गांधी देश के छठे प्रधानमंत्री बने थे। 31 अक्टूबर 1984 की शाम 6.15 बजे उन्हें राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने शपथ दिलाई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से देश की परिस्थितियां ऐसी थीं कि किसी कार्यवाहक प्रधानमंत्री की आवश्यकता न समझते हुए राजीव को ही प्रधानमंत्री बनाया गया।
यद्यपि वरिष्ठ मंत्री प्रणब मुखर्जी उस समय प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे और मीडिया ने उनकी जीवनी तक को बताना आरम्भ कर दिया था किन्तु वे शालीनता से परिस्थितियों को समझ गए और पीछे हट गए।
राजीव गांधी देश के सबसे पहले युवा प्रधानमंत्री बने। इंदिराजी जब प्रधानमंत्री बनी थीं तो उस समय उनकी अवस्था 49 वर्ष की थी, जबकि राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने तो उस समय उनकी अवस्था 40 वर्ष की थी। राजीव के प्रधानमंत्री बनने पर युवाओं में विशेष उत्साह जागृत हुआ।
राजीव ने भी मतदान के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी थी। देश की जनता ने 1985 के आम चुनावों में उन्हें प्रचंड बहुमत दिया। 543 में से 415 सीटें उन्हें लोकसभा में मिलीं। राजीव गांधी के लिए यह अबूझ पहेली आज तक बनी हुई है कि वे राजनीति के योग्य नहीं थे या राजनीति उनके योग्य नहीं थी।
राजीव गांधी भद्रपुरुष थे, ईमानदार थे, प्रगतिशील थे किन्तु तब तक राजनीति में इन गुणों का सम्मान कम हो गया था। उनकी अनुभवशून्यता उनके आड़े आई और उनके लोग उनकी जड़ें खोदने लगे। पायलट की नौकरी छोड़कर वे राजनीति में आए थे और अपनी पत्नी सोनिया के साथ राजनीति से दूर रहना ही पसंद करते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी अनिर्णय की स्थिति में रहे।
उनकी अनुभवशून्यता और मां के आकस्मिक निधन ने देश में सिखों की हत्याओं का खेल शुरू करा दिया। दुखी राजीव सक्षम कार्रवाई नहीं कर पाए। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने पर पंजाब समझौता किया, उसके पश्चात असम समझौता। इन दोनों समझौतों से पंजाब व पूर्वोत्तर की हिंसक गतिविधियों में रुकावट आई।
इसके पश्चात श्रीलंका में उन्होंने भारतीय सेना भेजी। भारत की सेना ने वहां भारत के ही तमिलों पर अत्याचार करने आरंभ किए, तो तमिल समुदाय राजीव के प्रति घृणा से भर गया।
इधर देश में बोफोर्स तोपों में दलाली खाने के कथित आरोपों से कांग्रेस की स्थिति दिन- प्रतिदिन दुर्बल होती जा रही थी। वी.पी. सिंह रातोरात नायक बनते जा रहे थे। उन्होंने राजीव की राजनीतिक कब्र खोद दी और उन्हें सत्ता से दूर कर दिया। बाद में सिद्ध हुआ कि राजीव सचमुच निर्दोष थे, किन्तु तब तक उन्हें दंड मिल चुका था।
दूसरी ओर रुष्ट तमिल लोगों ने उनकी हत्या का षड्यंत्र रचा और 21 मई 1991 को जब चुनाव का काल चल रहा था तो तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदूर में उनकी निर्मम हत्या कर दी गई। उन्होंने भारत में टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। कम्प्यूटर क्रांति, पेयजल की उपलब्धता, साक्षरता मिशन, श्वेत क्रांति, खाद्य तेल मिशन, गांव-गांव में टेलीफोन की व्यवस्था पंचायती राज, महिला उत्थान आदि के क्षेत्रों में विशेष कार्य किए।
दक्षेस संगठन की स्थापना राजीव गांधी ने की थी। चीन की यात्रा कर उसका दृष्टिकोण भारत के प्रति बदलने में किसी सीमा तक सफलता भी प्राप्त की। वे 31 अक्टूबर 1984 से 2 दिसंबर 1989 तक प्रधानमंत्री रहे।
विश्वनाथ प्रताप सिंह
राजा मांडा के नाम से विख्यात वीपी सिंह उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। वे फिर राजीव गांधी की सरकार में वित्तमंत्री रहे। बाद में फेयरफेक्स विवाद के चलते उन्हें इस मंत्रालय से हटाकर रक्षामंत्री बना दिया गया, तो वहां उन्होंने बोफोर्स तोपों के सौदे में कथित दलाली का भंडाफोड़ कर दिया।
इसके परिणामस्वरूप जनसाधारण में वे एक शहीद का सम्मान पाते चले गए। उनकी लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी जबकि राजीव गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा था। राजीव गांधी के विषय में उस समय लोग उन्हें 'मिस्टर क्लीन' कहकर अपने सम्मान का प्रदर्शन किया करते थे।
किन्तु 410 बोफोर्स तोपों के सौदे में कथित 60 करोड़ की दलाली ने, उनकी चादर को मैला बनाना शुरू कर दिया। उस समय के राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह थे, जिनकी राजीव गांधी से उस समय ठन रही थी।
उन्होंने भी वी.पी. सिंह को थपकी मारी और कहा जाता है कि एक बार तो राष्ट्रपति ने उन्हें प्रमं बनाने के लिए भी कहा था, किन्तु राजा पीछे हट गए, पर 1989 के चुनावों में उन्हें जनता ने समर्थन दिया और 2 दिसंबर 1989 को वे देश के प्रधानमंत्री बन गए।
वीपी के साथी भी यह जानते थे कि वे दुष्प्रचार के माध्यम से इस पद पर पहुंचे हैं, अत: उन्होंने राजा के साथ अधिक देर तक चलना ठीक नहीं समझा। उन्होंने देश के पिछड़े वर्ग को अपने साथ लेने के लिए मंडल आयोग की अनुशंसा लागू कर दीं। इससे देश में छात्रों ने आत्मदाह करना शुरू कर दिया। तत्समय भाजपा ने मंडल के विकल्प के रूप में कमंडल उठा लिया। उसने राम मंदिर निर्माण के लिए रथयात्रा निकालनी आरंभ कर दी।
उनके साथ चौधरी देवीलाल थे, चंद्रशेखर थे। इन दोनों ने राजा के स्थान पर स्वयं को प्रधानमंत्री बनने की तिकड़में बिछानी आरंभ कर दीं। 1989 के चुनाव में वीपी सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं थीं जबकि कांग्रेस को 197 सीटें मिलीं थीं, किन्तु भाजपा, वामपंथी आदि दलों ने मिलकर राष्ट्रीय मोर्चे को समर्थन दिया था।
भारी दुष्प्रचार के बाद भी राजा, राजा बनने के लिए विभिन्न बैसाखियों का सहारा ढूंढते रहे। अंत में कांग्रेस ने जनता पार्टी की भांति ही इस सरकार को भी चलता करने का रास्ता खोजा। उसने चंद्रशेखर को अपना समर्थन दिया और वी.पी. सिंह की सरकार को गिराने में सफलता प्राप्त कर ली।
5 नवंबर 1990 को वी.पी. सिंह का जनता दल बिखर गया। 10 नवंबर 1990 को उनकी गद्दी जाती रही। उनके ही 58 सांसदों ने उन्हें छोड़कर चंद्रशेखर को अपना नेता चुन लिया। इस प्रकार उन्हें देश का प्रधानमंत्री बने रहने का अवसर 1 वर्ष की अवधि के लिए भी नहीं मिल पाया।
राजा मांडा के नाम से विख्यात वीपी सिंह उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। वे फिर राजीव गांधी की सरकार में वित्तमंत्री रहे। बाद में फेयरफेक्स विवाद के चलते उन्हें इस मंत्रालय से हटाकर रक्षामंत्री बना दिया गया, तो वहां उन्होंने बोफोर्स तोपों के सौदे में कथित दलाली का भंडाफोड़ कर दिया।
इसके परिणामस्वरूप जनसाधारण में वे एक शहीद का सम्मान पाते चले गए। उनकी लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी जबकि राजीव गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा था। राजीव गांधी के विषय में उस समय लोग उन्हें 'मिस्टर क्लीन' कहकर अपने सम्मान का प्रदर्शन किया करते थे।
किन्तु 410 बोफोर्स तोपों के सौदे में कथित 60 करोड़ की दलाली ने, उनकी चादर को मैला बनाना शुरू कर दिया। उस समय के राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह थे, जिनकी राजीव गांधी से उस समय ठन रही थी।
उन्होंने भी वी.पी. सिंह को थपकी मारी और कहा जाता है कि एक बार तो राष्ट्रपति ने उन्हें प्रमं बनाने के लिए भी कहा था, किन्तु राजा पीछे हट गए, पर 1989 के चुनावों में उन्हें जनता ने समर्थन दिया और 2 दिसंबर 1989 को वे देश के प्रधानमंत्री बन गए।
वीपी के साथी भी यह जानते थे कि वे दुष्प्रचार के माध्यम से इस पद पर पहुंचे हैं, अत: उन्होंने राजा के साथ अधिक देर तक चलना ठीक नहीं समझा। उन्होंने देश के पिछड़े वर्ग को अपने साथ लेने के लिए मंडल आयोग की अनुशंसा लागू कर दीं। इससे देश में छात्रों ने आत्मदाह करना शुरू कर दिया। तत्समय भाजपा ने मंडल के विकल्प के रूप में कमंडल उठा लिया। उसने राम मंदिर निर्माण के लिए रथयात्रा निकालनी आरंभ कर दी।
उनके साथ चौधरी देवीलाल थे, चंद्रशेखर थे। इन दोनों ने राजा के स्थान पर स्वयं को प्रधानमंत्री बनने की तिकड़में बिछानी आरंभ कर दीं। 1989 के चुनाव में वीपी सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं थीं जबकि कांग्रेस को 197 सीटें मिलीं थीं, किन्तु भाजपा, वामपंथी आदि दलों ने मिलकर राष्ट्रीय मोर्चे को समर्थन दिया था।
भारी दुष्प्रचार के बाद भी राजा, राजा बनने के लिए विभिन्न बैसाखियों का सहारा ढूंढते रहे। अंत में कांग्रेस ने जनता पार्टी की भांति ही इस सरकार को भी चलता करने का रास्ता खोजा। उसने चंद्रशेखर को अपना समर्थन दिया और वी.पी. सिंह की सरकार को गिराने में सफलता प्राप्त कर ली।
5 नवंबर 1990 को वी.पी. सिंह का जनता दल बिखर गया। 10 नवंबर 1990 को उनकी गद्दी जाती रही। उनके ही 58 सांसदों ने उन्हें छोड़कर चंद्रशेखर को अपना नेता चुन लिया। इस प्रकार उन्हें देश का प्रधानमंत्री बने रहने का अवसर 1 वर्ष की अवधि के लिए भी नहीं मिल पाया।
चंद्रशेखर
एक योग्य सांसद और प्रखर वक्ता के रूप में युवा तुर्क नेता चंद्रशेखर ने राजनीति में प्रवेश किया था। वे बहुत ही महत्वाकांक्षी थे। उनकी बुद्धि तीक्ष्ण थी। वे श्रम के प्रति निष्ठावान थे।
वीपी सिंह के साथ उनकी अधिक देर तक नहीं बनी। उन्होंने जनता पार्टी के गिरने के समय पूरे भारत की पैदल यात्रा की थी। उन्होंने 10 नवंबर 1990 को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
तब उनको कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देने की बात कही। बाद में कांग्रेस ने अपने नेता राजीव गांधी की गुप्तचरी करने का आरोप सरकार पर लगाकर 5 मार्च 1991 को अपना समर्थन वापस ले लिया। फलस्वरूप देश में नए चुनाव हुए। इन चुनावों के मध्य ही राजीव गांधी की हत्या हो गई थी।
इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस को केंद्र में जोड़-तोड़ करके अपनी सरकार बनाने का अवसर मिल गया। 21 जून 1991 तक चंद्रशेखर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान रहे। 1995 में उन्हें सर्वोत्कृष्ट सांसद का पुरस्कार भी दिया गया। उनके भीतर स्वाभिमान, योग्यता, आचरण, व्यवहार की सभ्यता कूट-कूटकर भरी थी, किन्तु कई बार अति भी कष्टदायी हो जाती है।
एक योग्य सांसद और प्रखर वक्ता के रूप में युवा तुर्क नेता चंद्रशेखर ने राजनीति में प्रवेश किया था। वे बहुत ही महत्वाकांक्षी थे। उनकी बुद्धि तीक्ष्ण थी। वे श्रम के प्रति निष्ठावान थे।
वीपी सिंह के साथ उनकी अधिक देर तक नहीं बनी। उन्होंने जनता पार्टी के गिरने के समय पूरे भारत की पैदल यात्रा की थी। उन्होंने 10 नवंबर 1990 को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
तब उनको कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देने की बात कही। बाद में कांग्रेस ने अपने नेता राजीव गांधी की गुप्तचरी करने का आरोप सरकार पर लगाकर 5 मार्च 1991 को अपना समर्थन वापस ले लिया। फलस्वरूप देश में नए चुनाव हुए। इन चुनावों के मध्य ही राजीव गांधी की हत्या हो गई थी।
इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस को केंद्र में जोड़-तोड़ करके अपनी सरकार बनाने का अवसर मिल गया। 21 जून 1991 तक चंद्रशेखर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान रहे। 1995 में उन्हें सर्वोत्कृष्ट सांसद का पुरस्कार भी दिया गया। उनके भीतर स्वाभिमान, योग्यता, आचरण, व्यवहार की सभ्यता कूट-कूटकर भरी थी, किन्तु कई बार अति भी कष्टदायी हो जाती है।
पी.वी. नरसिंहराव
कांग्रेस पार्टी ने पी.वी. नरसिंहराव को 1991 के चुनावों में चुनाव लडऩे के लिए टिकट नहीं दिया था। वे राजनीति व दिल्ली को विदा कह रहे थे, किन्तु तभी परिस्थितियां बदलीं। राजीव गांधी की हत्या हो गई। परिस्थितियों ने जाते हुए एक पथिक को रोक दिया।
उन्हें रोककर वापस बुला लिया। नेतृत्वविहीन हुई कांग्रेस के लिए कामचलाऊ नेता के रूप में लोगों ने पीवी नरसिंहराव का चयन कर लिया। देश के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने 21 जून 1991 को शपथ ग्रहण की।
इससे पूर्व वे देश में गृहमंत्री, रक्षामंत्री, विदेश मंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री भी रह चुके थे। उन पर प्रधानमंत्री के रूप में भ्रष्टाचार के आरोप लगे। उन्हें कांग्रेसियों ने ही शासन करने में विभिन्न व्यवधान डाले, किन्तु असीम धैर्य के साथ उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया।
यही नहीं, देश की जर्जर अर्थव्यवस्था को भी वे ढर्रे पर लाए। किन्तु सेंट किट्स कांड, हर्षद मेहता कांड, झारखंड मुक्ति मोर्चा कांड में उनकी भूमिका से उनके विरुद्ध वातावरण देश में बना। 1992 में देश में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ। इसमें उनकी भूमिका पर भी लोगों ने कई प्रकार की टिप्पणियां कीं।
पीवी नरसिंहराव को अपनी चतुराई के कारण भारतीय राजनीति का चाणक्य कहा जाता था। वे विद्वान थे, बहुभाषाविद थे तथा देश के पहले सुधारवादी प्रधानमंत्री थे। 28 जून 1921 को आंध्रप्रदेश के बांगरा गांव में उनका जन्म हुआ। 21 मई 1996 तक वे देश के प्रधानमंत्री रहे। 23 दिसंबर 2004 को वे एम्स में दिवंगत हुए।
कांग्रेस पार्टी ने पी.वी. नरसिंहराव को 1991 के चुनावों में चुनाव लडऩे के लिए टिकट नहीं दिया था। वे राजनीति व दिल्ली को विदा कह रहे थे, किन्तु तभी परिस्थितियां बदलीं। राजीव गांधी की हत्या हो गई। परिस्थितियों ने जाते हुए एक पथिक को रोक दिया।
उन्हें रोककर वापस बुला लिया। नेतृत्वविहीन हुई कांग्रेस के लिए कामचलाऊ नेता के रूप में लोगों ने पीवी नरसिंहराव का चयन कर लिया। देश के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने 21 जून 1991 को शपथ ग्रहण की।
इससे पूर्व वे देश में गृहमंत्री, रक्षामंत्री, विदेश मंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री भी रह चुके थे। उन पर प्रधानमंत्री के रूप में भ्रष्टाचार के आरोप लगे। उन्हें कांग्रेसियों ने ही शासन करने में विभिन्न व्यवधान डाले, किन्तु असीम धैर्य के साथ उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया।
यही नहीं, देश की जर्जर अर्थव्यवस्था को भी वे ढर्रे पर लाए। किन्तु सेंट किट्स कांड, हर्षद मेहता कांड, झारखंड मुक्ति मोर्चा कांड में उनकी भूमिका से उनके विरुद्ध वातावरण देश में बना। 1992 में देश में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ। इसमें उनकी भूमिका पर भी लोगों ने कई प्रकार की टिप्पणियां कीं।
पीवी नरसिंहराव को अपनी चतुराई के कारण भारतीय राजनीति का चाणक्य कहा जाता था। वे विद्वान थे, बहुभाषाविद थे तथा देश के पहले सुधारवादी प्रधानमंत्री थे। 28 जून 1921 को आंध्रप्रदेश के बांगरा गांव में उनका जन्म हुआ। 21 मई 1996 तक वे देश के प्रधानमंत्री रहे। 23 दिसंबर 2004 को वे एम्स में दिवंगत हुए।
अटल बिहारी वाजपेयी
11वीं लोकसभा का चुनाव अप्रैल-मई 1996 में हुआ। इस चुनाव में भाजपा को 161 स्थान मिले। अति उत्साह में भाजपा ने अटलजी को अपना नेता चुना और अनुत्साही दिख रहे अटलजी से सरकार बनाने का दावा करा दिया।
प्रथम बार प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने संसद में 29-30 मई को अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए बहस कराई। इस मध्य ही वे समझ गए कि संसद का बहुमत उनके विरुद्ध है अत: उन्होंने मत विभाजन से पूर्व ही त्यागपत्र दे दिया। बीच में एचडी देवेगौड़ा और आईके गुजराल ने प्रधानमंत्री पद संभाला।
बाद में 19 मार्च 1998 को अटलजी फिर से देश के प्रधानमंत्री बने। भाजपा की सदस्य संख्या तब 182 थी। अप्रैल 1999 में जयललिता ने अपना समर्थन वापस ले लिया, तो अक्टूबर 1999 में पुन: चुनाव हुए।
तब तक अटलजी कार्यकारी प्रधानमंत्री रहे। इस मध्य कविमना वाजपेयी ने राजस्थान के पोखरण में 11 मई 1998 को 5 परमाणु परीक्षण करके, देश को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों की श्रेणी में ला खड़ा किया।
इंदिरा गांधी ने इससे पूर्व 1974 में परमाणु परीक्षण करके देश के सम्मान को बढ़ाया था। अटलजी के समय में कारगिल युद्ध हुआ। बड़ी क्षति उठाकर भी देश ने उस युद्ध में सफलता प्राप्त की। 13 अक्टूबर 1999 को राष्ट्रपति केआर नारायणन ने अटल बिहारी वाजपेयी को पुन: प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई।
अटलजी को इस पद पर आसीन करने में आडवाणीजी का विशेष सहयोग रहा। उन्होंने भाजपा को जनसामान्य से परिचित कराया था। अटलजी ने विभिन्न विचारों के नेताओं को घटक दल के रूप में साथ लेकर चलते हुए अपना तीसरा कार्यकाल पूरा किया। अटलजी की आर्थिक नीतियां सफल रहीं।
उन्होंने भारत के संबंधों को पाक के साथ सहज बनाने का प्रयास किया, किन्तु फिर भी पाकिस्तान के सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ के साथ, उनकी आगरा शिखर वार्ता सफल नहीं रही। संसद पर हमला भी उनके काल में ही हुआ था, तहलका कांड भी हुआ। भाजपा अपनी मूल विचारधारा से भटकी और उसे 2004 के चुनावों में सत्ता से हाथ धोना पड़ा।
अटलजी का व्यक्तित्व ऐसा रहा कि जिन्हें सभी सम्मान देते हैं। डॉ. मनमोहनसिंह ने तो उन्हें एक बार भीष्म पितामह की उपाधि तक दी थी। उनकी वक्तृत्व शैली का सभी लोग लोहा मानते रहे हैं और उनकी सहृदयता सभी लोगों को छूती रही है। उनका जन्म 25 दिसंबर 1924 को हुआ।
11वीं लोकसभा का चुनाव अप्रैल-मई 1996 में हुआ। इस चुनाव में भाजपा को 161 स्थान मिले। अति उत्साह में भाजपा ने अटलजी को अपना नेता चुना और अनुत्साही दिख रहे अटलजी से सरकार बनाने का दावा करा दिया।
प्रथम बार प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने संसद में 29-30 मई को अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए बहस कराई। इस मध्य ही वे समझ गए कि संसद का बहुमत उनके विरुद्ध है अत: उन्होंने मत विभाजन से पूर्व ही त्यागपत्र दे दिया। बीच में एचडी देवेगौड़ा और आईके गुजराल ने प्रधानमंत्री पद संभाला।
बाद में 19 मार्च 1998 को अटलजी फिर से देश के प्रधानमंत्री बने। भाजपा की सदस्य संख्या तब 182 थी। अप्रैल 1999 में जयललिता ने अपना समर्थन वापस ले लिया, तो अक्टूबर 1999 में पुन: चुनाव हुए।
तब तक अटलजी कार्यकारी प्रधानमंत्री रहे। इस मध्य कविमना वाजपेयी ने राजस्थान के पोखरण में 11 मई 1998 को 5 परमाणु परीक्षण करके, देश को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों की श्रेणी में ला खड़ा किया।
इंदिरा गांधी ने इससे पूर्व 1974 में परमाणु परीक्षण करके देश के सम्मान को बढ़ाया था। अटलजी के समय में कारगिल युद्ध हुआ। बड़ी क्षति उठाकर भी देश ने उस युद्ध में सफलता प्राप्त की। 13 अक्टूबर 1999 को राष्ट्रपति केआर नारायणन ने अटल बिहारी वाजपेयी को पुन: प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई।
अटलजी को इस पद पर आसीन करने में आडवाणीजी का विशेष सहयोग रहा। उन्होंने भाजपा को जनसामान्य से परिचित कराया था। अटलजी ने विभिन्न विचारों के नेताओं को घटक दल के रूप में साथ लेकर चलते हुए अपना तीसरा कार्यकाल पूरा किया। अटलजी की आर्थिक नीतियां सफल रहीं।
उन्होंने भारत के संबंधों को पाक के साथ सहज बनाने का प्रयास किया, किन्तु फिर भी पाकिस्तान के सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ के साथ, उनकी आगरा शिखर वार्ता सफल नहीं रही। संसद पर हमला भी उनके काल में ही हुआ था, तहलका कांड भी हुआ। भाजपा अपनी मूल विचारधारा से भटकी और उसे 2004 के चुनावों में सत्ता से हाथ धोना पड़ा।
अटलजी का व्यक्तित्व ऐसा रहा कि जिन्हें सभी सम्मान देते हैं। डॉ. मनमोहनसिंह ने तो उन्हें एक बार भीष्म पितामह की उपाधि तक दी थी। उनकी वक्तृत्व शैली का सभी लोग लोहा मानते रहे हैं और उनकी सहृदयता सभी लोगों को छूती रही है। उनका जन्म 25 दिसंबर 1924 को हुआ।
एचडी देवेगौड़ा
अटलजी की सरकार प्रथम बार 13 दिन तक चली और गिर गई थी। तब कुछ दिग्गज नेताओं ने एक ऐसे नेता की खोज की, जो उनके अनुसार सरकार चलाए और जिसे जब चाहें चलता कर दिया जाए।
उन्हें हरदनहल्ली डोड्डेगौड़ा देवेगौड़ा इस कसौटी पर खरे समझ आए। वे कर्नाटक के मुख्यमंत्री थे। उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दिलाकर देश का प्रधानमंत्री का पद थाली में सजाकर दिया गया। वे देश के मात्र 10 माह तक प्रधानमंत्री रहे। 21 अप्रैल 1997 को उन्हें प्रधानमंत्री पद छोडऩा पड़ा।
इसका कारण भी कांग्रेस ही बनी। उसने देवेगौड़ा से समर्थन वापस ले लिया। देवेगौड़ा लोकसभा में सारे दलों तथा सांसदों से पूछते रहे कि आखिर उनकी गलती क्या है? जो इतनी बड़ी सजा दी जा रही है? किन्तु दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को रातों में सपने आ रहे थे कि अभी नहीं तो कभी नहीं, इसलिए वे शीघ्रातिशीघ्र प्रधानमंत्री बन जाना चाहते थे।
अत: एक निरपराध प्रधानमंत्री को बलि का बकरा बना दिया। 19 मार्च 1997 को देवेगौड़ा को पद त्याग करना पड़ा। अंतरिम व्यवस्था तक वे दो दिन और प्रधानमंत्री रहे।
अटलजी की सरकार प्रथम बार 13 दिन तक चली और गिर गई थी। तब कुछ दिग्गज नेताओं ने एक ऐसे नेता की खोज की, जो उनके अनुसार सरकार चलाए और जिसे जब चाहें चलता कर दिया जाए।
उन्हें हरदनहल्ली डोड्डेगौड़ा देवेगौड़ा इस कसौटी पर खरे समझ आए। वे कर्नाटक के मुख्यमंत्री थे। उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दिलाकर देश का प्रधानमंत्री का पद थाली में सजाकर दिया गया। वे देश के मात्र 10 माह तक प्रधानमंत्री रहे। 21 अप्रैल 1997 को उन्हें प्रधानमंत्री पद छोडऩा पड़ा।
इसका कारण भी कांग्रेस ही बनी। उसने देवेगौड़ा से समर्थन वापस ले लिया। देवेगौड़ा लोकसभा में सारे दलों तथा सांसदों से पूछते रहे कि आखिर उनकी गलती क्या है? जो इतनी बड़ी सजा दी जा रही है? किन्तु दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को रातों में सपने आ रहे थे कि अभी नहीं तो कभी नहीं, इसलिए वे शीघ्रातिशीघ्र प्रधानमंत्री बन जाना चाहते थे।
अत: एक निरपराध प्रधानमंत्री को बलि का बकरा बना दिया। 19 मार्च 1997 को देवेगौड़ा को पद त्याग करना पड़ा। अंतरिम व्यवस्था तक वे दो दिन और प्रधानमंत्री रहे।
इंद्र कुमार गुजराल
इंद्र कुमार गुजराल 21 अप्रैल 1997 को देश के प्रधानमंत्री बने। 11 महीने पश्चात 19 मार्च 1998 को इन्हें पद छोड़ना पड़ा। राष्ट्रपति ने लोकसभा को भंग किया और नए चुनाव हुए। इसके बाद भाजपा सरकार ने कार्यभार संभाला।
इंद्रकुमार गुजराल का जन्म 4 दिसंबर 1919 को झेलम नगर (पाकिस्तान) में हुआ। उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। प्रधानमंत्री बनने से पूर्व आपने संचार एवं संसदीय कार्यमंत्री, सूचना एवं प्रसारण मंत्री, सड़क एवं भवन मंत्री, योजना एवं विदेश मंत्री के रूप में कार्य किया था।
वे रूस में भारत के राजदूत भी रहे। विभिन्न गुणों से सम्पन्न होते हुए भी गुजराल देश की जनता के बीच अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाए। भाषण से वे लोगों को अपनी ओर खींच नहीं पाते थे।
ऐसी स्थिति में 24 दलों की बैसाखी पर चल रही सरकार का नेतृत्व वे कब तक करते? आखिर सरकार गिर गई, फिर भी उनकी योग्यता और ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। वे विनम्र और शालीन व्यक्ति रहे हैं। अहंकारशून्य व्यक्तित्व के धनी गुजराल का लोग व्यक्तिगत रूप से अतिसम्मान करते थे। उनका निधन 30 नवंबर 2012 को हुआ था।
इंद्र कुमार गुजराल 21 अप्रैल 1997 को देश के प्रधानमंत्री बने। 11 महीने पश्चात 19 मार्च 1998 को इन्हें पद छोड़ना पड़ा। राष्ट्रपति ने लोकसभा को भंग किया और नए चुनाव हुए। इसके बाद भाजपा सरकार ने कार्यभार संभाला।
इंद्रकुमार गुजराल का जन्म 4 दिसंबर 1919 को झेलम नगर (पाकिस्तान) में हुआ। उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। प्रधानमंत्री बनने से पूर्व आपने संचार एवं संसदीय कार्यमंत्री, सूचना एवं प्रसारण मंत्री, सड़क एवं भवन मंत्री, योजना एवं विदेश मंत्री के रूप में कार्य किया था।
वे रूस में भारत के राजदूत भी रहे। विभिन्न गुणों से सम्पन्न होते हुए भी गुजराल देश की जनता के बीच अधिक लोकप्रिय नहीं हो पाए। भाषण से वे लोगों को अपनी ओर खींच नहीं पाते थे।
ऐसी स्थिति में 24 दलों की बैसाखी पर चल रही सरकार का नेतृत्व वे कब तक करते? आखिर सरकार गिर गई, फिर भी उनकी योग्यता और ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। वे विनम्र और शालीन व्यक्ति रहे हैं। अहंकारशून्य व्यक्तित्व के धनी गुजराल का लोग व्यक्तिगत रूप से अतिसम्मान करते थे। उनका निधन 30 नवंबर 2012 को हुआ था।
डॉ. मनमोहनसिंह
डॉ. मनमोहनसिंह ने 22 मई 2004 को भारत के 13वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। यह पद उस समय उन्हें भी सौभाग्य से ही मिला था। प्रधानमंत्री पद के दायित्वों के निर्वाह के बारे में उन्होंने तो शायद सपने में भी नहीं सोचा होगा। सोनिया गांधी द्वारा प्रधानमंत्री बनने से मना करने पर उन्हें प्रधानमंत्री पद के दायित्व को वहन करना पड़ा। डॉ. सिंह की आर्थिक नीतियां देश के लिए लाभदायक रहीं।
देश के वित्तमंत्री रहते हुए उन्होंने देश के लिए जो आर्थिक नीतियां दीं, उनके अच्छे परिणाम आए। भारत को एक सुधार वादी वित्तमंत्री मिला अत: जब वे देश के प्रधानमंत्री बने तो लोगों ने सोचा कि एक अच्छा प्रधानमंत्री देश को मिला है।
स्वभाव से शांत और विनम्र डॉ. मनमोहनसिंह के साथ समस्या यह रही कि उनका नियंत्रण सोनिया गांधी के पास रहा है, चाबी राहुल गांधी के पास रही है, तो ऊर्जा प्रणब मुखर्जी से मिलती है। फिर भी वे देश को चलाते रहे हैं और देश चल रहा है। उनकी सबसे बड़ी जीत और सबसे बड़ी सफलता यही है। वे देश का दोबार नेतृत्व कर चुके हैं।
डॉ. मनमोहनसिंह ने 22 मई 2004 को भारत के 13वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। यह पद उस समय उन्हें भी सौभाग्य से ही मिला था। प्रधानमंत्री पद के दायित्वों के निर्वाह के बारे में उन्होंने तो शायद सपने में भी नहीं सोचा होगा। सोनिया गांधी द्वारा प्रधानमंत्री बनने से मना करने पर उन्हें प्रधानमंत्री पद के दायित्व को वहन करना पड़ा। डॉ. सिंह की आर्थिक नीतियां देश के लिए लाभदायक रहीं।
देश के वित्तमंत्री रहते हुए उन्होंने देश के लिए जो आर्थिक नीतियां दीं, उनके अच्छे परिणाम आए। भारत को एक सुधार वादी वित्तमंत्री मिला अत: जब वे देश के प्रधानमंत्री बने तो लोगों ने सोचा कि एक अच्छा प्रधानमंत्री देश को मिला है।
स्वभाव से शांत और विनम्र डॉ. मनमोहनसिंह के साथ समस्या यह रही कि उनका नियंत्रण सोनिया गांधी के पास रहा है, चाबी राहुल गांधी के पास रही है, तो ऊर्जा प्रणब मुखर्जी से मिलती है। फिर भी वे देश को चलाते रहे हैं और देश चल रहा है। उनकी सबसे बड़ी जीत और सबसे बड़ी सफलता यही है। वे देश का दोबार नेतृत्व कर चुके हैं।
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी
(गुजराती: નરેંદ્ર દામોદરદાસ મોદી; जन्म: १७ सितम्बर १९५०) दशकों के परिवारवाद से ग्रसित भारत को मुक्ति दिलाने की, नरेन्द्र मोदी की एक चाय का स्टॉल चलाने से लेकर भारत के वर्तमान प्रधान मन्त्री बनने की अद्भुत सफल यात्रा है। भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उन्हें २६ मई २०१४ को भारत के प्रधान मन्त्री पद की शपथ दिलायी। वे स्वतन्त्र भारत के १५वें प्रधानमन्त्री हैं तथा इस पद पर आसीन होने वाले स्वतंत्र भारत में जन्मे प्रथम व्यक्ति हैं। उनके नेतृत्व में भारत के प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने २०१४ का लोकसभा चुनाव लड़ा और २८२ सीटें जीतकर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। एक सांसद के रूप में उन्होंने उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक नगरी वाराणसी एवं अपने गृहराज्य गुजरात के वडोदरा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा और दोनों स्थानों से विजय अर्जित की।
इससे पूर्व वे गुजरात राज्य के १४वें मुख्यमन्त्री रहे। उन्हें उनके काम के कारण गुजरात की जनता ने निरंतर ४ बार (२००१ से २०१४ तक) मुख्यमन्त्री चुना। गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त नरेन्द्र मोदी विकास पुरुष के नाम से जाने जाते हैं और वर्तमान समय में देश के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से हैं।। माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर भी वे सबसे अधिक फॉलोअर वाले भारतीय नेता हैं। टाइम पत्रिका ने मोदी को पर्सन ऑफ़ द ईयर २०१३ के ४२ प्रत्याशियों की सूची में शामिल किया है।
अटल बिहारी वाजपेयी की भाँति नरेन्द्र मोदी एक राजनेता और कवि हैं। वे गुजराती भाषा के अतिरिक्त हिन्दी में भी देशप्रेम से ओतप्रोत कविताएँ लिखते हैं।
निजी जीवन
नरेन्द्र मोदी का जन्म तत्कालीन बॉम्बे राज्य के महेसाना जिला स्थित वडनगर ग्राम में हीराबेन मोदी और दामोदरदास मूलचन्द मोदी के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में १७ सितम्बर १९५० को हुआ था। वह पूर्णत: शाकाहारी हैं। भारत पाकिस्तान के बीच द्वितीय युद्ध के मध्य अपने तरुणकाल में उन्होंने स्वेच्छा से रेलवे स्टेशनों पर यात्रा कर रहे सैनिकों की सेवा की। युवावस्था में वह छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हुए | उन्होंने साथ ही साथ भ्रष्टाचार विरोधी नव निर्माण आन्दोलन में भाग लिया। एक पूर्णकालिक आयोजक के रूप में कार्य करने के पश्चात् उन्हें भारतीय जनता पार्टी में संगठन का प्रतिनिधि मनोनीत किया गया। किशोरावस्था में अपने भाई के साथ एक चाय की दुकान चला चुके मोदी ने वड़नगर में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की। उन्होंने रास्वसंघ के प्रचारक रहते हुए 1980 में गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर परीक्षा दी और स्नातकोत्तर विज्ञानं (एम॰एससी) की उपाधि प्राप्त की।
अपने माता-पिता की कुल छ: सन्तानों में तीसरे पुत्र नरेन्द्र ने बचपन में रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने में अपने पिता का भी हाथ बँटाया। बड़नगर के ही एक स्कूल मास्टर के अनुसार नरेन्द्र जबकि एक औसत स्तर का छात्र था, किन्तु वाद-विवाद और नाटक प्रतियोगिताओं में उसकी गहन रुचि थी। इसके अतिरिक्त उसकी रुचि राजनीतिक विषयों पर नयी-नयी परियोजनाएँ प्रारम्भ करने की भी थी।
13 वर्ष की आयु में नरेन्द्र की सगाई जसोदा बेन चमनलाल के साथ कर दी गयी और जब उनका विवाह हुआ, वह मात्र 17 वर्ष के थे। प्राप्त जानकारी के अनुसार पति-पत्नी ने कुछ वर्ष साथ रहकर बिताये। परन्तु कुछ समय बाद वे दोनों एक दूसरे से दूर हो गये क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने उनसे कुछ ऐसी ही इच्छा व्यक्त की थी। जबकि नरेन्द्र मोदी के जीवनी-लेखक ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है:
"उन दोनों का विवाह अवश्य हुआ परन्तु वे दोनों एक साथ कभी नहीं रहे। विवाह के कुछ वर्षों बाद नरेन्द्र मोदी ने घर त्याग दिया और एक प्रकार से उनका वैवाहिक जीवन लगभग समाप्त-सा ही हो गया।"
गत चार विधान सभा चुनावों में अपनी वैवाहिक स्थिति पर मौन रहने के बाद नरेन्द्र मोदी ने कहा कि अविवाहित रहने की जानकारी देकर उन्होंने कोई पाप नहीं किया। नरेन्द्र मोदी के अनुसार एक विवाहित के समक्ष अविवाहित व्यक्ति भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रबल ढंग से लड़ सकता है क्योंकि उसे अपनी पत्नी, परिवार व बालबच्चों की कोई चिन्ता नहीं रहती। जबकि नरेन्द्र मोदी ने शपथ पत्र प्रस्तुत कर जसोदाबेन को अपनी पत्नी स्वीकार किया है।
प्रारंभिक सक्रियता और राजनीती
नरेन्द्र जब विश्वविद्यालय के छात्र थे तभी से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में नियमित जाने लगे थे। इस प्रकार उनका जीवन संघ के एक निष्ठावान प्रचारक के रूप में प्रारम्भ हुआ। उन्होंने आरंभिक जीवन से ही राजनीतिक सक्रियता दिखलायी और भारतीय जनता पार्टी का जनाधार सुदृढ़ करने में प्रमुख भूमिका निभायी। गुजरात में शंकरसिंह वाघेला का जनाधार सशक्त बनाने में नरेन्द्र मोदी की ही रणनीति थी।
अप्रैल १९९० में जब केन्द्र में मिली जुली सरकारों का काल आरम्भ हुआ, मोदी का श्रम रंग लाया, जब गुजरात में १९९५ के विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने अपने बल पर दो तिहाई बहुमत प्राप्त कर सरकार बना ली। इसी मध्य दो राष्ट्रीय घटनायें और इस देश में घटीं। पहली घटना थी सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की रथयात्रा जिसमें आडवाणी के प्रमुख सारथी की मूमिका में नरेन्द्र का मुख्य सहयोग रहा। इसी प्रकार कन्याकुमारी से लेकर सुदूर उत्तर में स्थित काश्मीर तक की मुरली मनोहर जोशी की दूसरी रथ यात्रा भी नरेन्द्र मोदी की ही देखरेख में आयोजित हुई। इसके बाद शंकरसिंह वाघेला ने पार्टी से त्यागपत्र दे दिया, जिसके परिणामस्वरूप केशुभाई पटेल को गुजरात का मुख्यमन्त्री बना दिया गया और नरेन्द्र मोदी को दिल्ली बुला कर भाजपा में संगठन की दृष्टि से केन्द्रीय मन्त्री का दायित्व सौंपा गया।
१९९५ में राष्ट्रीय मन्त्री के नाते उन्हें पाँच प्रमुख राज्यों में पार्टी संगठन का काम दिया गया जिसे उन्होंने भले से निभाया। १९९८ में उन्हें पदोन्नत करके राष्ट्रीय महामन्त्री (संगठन) का उत्तरदायित्व दिया गया। इस पद पर वह अक्टूबर २००१ तक काम करते रहे। भारतीय जनता पार्टी ने अक्टूबर २००१ में केशुभाई पटेल को हटाकर गुजरात के मुख्यमन्त्री पद का नेतृत्व नरेन्द्र मोदी को सौंप दिया।
मु मं गुजरात के रूप में
2001 में केशुभाई पटेल का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था और भाजपा चुनाव में कई सीट हार रही थी। इसके बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुख्यमंत्री के रूप में मोदी को नया प्रत्याशी बनाते हैं। जबकि भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी, मोदी के सरकार चलाने के अनुभव की कमी के कारण चिंतित थे। मोदी ने पटेल के उप मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया और आडवाणी व अटल बिहारी वाजपेयी से बोले कि यदि गुजरात का दायित्व देना है, तो पूरा दें अन्यथा न दें। केशुभाई पटेल के स्थान पर 3 अक्टूबर 2001 को मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने। इसके साथ ही उन पर दिसम्बर 2002 में होने वाले चुनाव का पूरा दायित्व भी था।
2001-02
नरेन्द्र मोदी ने मुख्यमंत्री का अपना पहला कार्यकाल 7 अक्टूबर 2001 से आरम्भ किया। इसके बाद मोदी ने राजकोट विधानसभा चुनाव लड़ा। जिसमें काँग्रेस पार्टी के आश्विन मेहता को 14,728 मतों से परास्त किया।
नरेन्द्र मोदी अपनी विशिष्ट जीवन शैली के लिये समूचे राजनीतिक क्षेत्रों में जाने जाते हैं। उनके व्यक्तिगत कर्मियों में केवल तीन ही लोग रहते हैं, कोई भारी-भरकम समूह नहीं होता। किन्तु कर्मयोगी की भांति जीवन जीने वाले मोदी के स्वभाव से सभी परिचित हैं, इस नाते उन्हें अपने कामकाज को मूरत रूप देने में कोई कठिनाई नहीं आती। उन्होंने गुजरात में कई ऐसे हिन्दू मन्दिरों को भी ध्वस्त करवाने में कभी कोई ढील नहीं दर्शाई जो सरकारी नियम कानून के अनुसार नहीं बने थे। जबकि इसके लिये उन्हें विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों का कोपभाजन भी बनना पड़ा, परन्तु उन्होंने इसकी रत्ती मात्र भी चिंता नहीं की; जो उन्हें उचित लगा करते रहे। वे एक लोकप्रिय वक्ता हैं, जिन्हें सुनने के लिये बहुत भारी संख्या में श्रोता आज भी पहुँचते हैं। कुर्ता -पायजामा व सदरी के अतिरिक्त वे कभी-कभार सूट भी पहन लेते हैं। अपनी मातृभाषा गुजराती के अतिरिक्त वह राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही बोलते हैं।
मोदी के नेतृत्व में २०१२ में हुए गुजरात विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। भाजपा को इस बार ११५ सीटें प्राप्त हुईं।
गुजरात के विकास की योजनाएँ
मुख्यमन्त्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के विकास के लिये जो महत्वपूर्ण योजनाएँ प्रारम्भ कीं व उन्हें क्रियान्वित कराया, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
- पंचामृत योजना - राज्य के एकीकृत विकास की पंचायामी योजना,
- सुजलाम् सुफलाम् - राज्य में जलस्रोतों का उचित व समेकित उपयोग, जिससे जल की बर्बादी को रोका जा सके,
- कृषि महोत्सव – उपजाऊ भूमि के लिये शोध प्रयोगशालाएँ,
- चिरंजीवी योजना – नवजात शिशु की मृत्युदर में कमी लाने हेतु,
- मातृ-वन्दना – जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु,
- बेटी बचाओ – भ्रूण-हत्या व लिंगानुपात पर अंकुश हेतु,
- ज्योतिग्राम योजना – प्रत्येक गाँव में बिजली पहुँचाने हेतु,
- कर्मयोगी अभियान – सरकारी कर्मचारियों में अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा जगाने हेतु,
- कन्या कलावाणी योजना – महिला साक्षरता व शिक्षा के प्रति जागरुकता,
- बालभोग योजना – निर्धन छात्रों को विद्यालय में दोपहर का भोजन,
मोदी का वनबन्धु विकास कार्यक्रम
उपरोक्त विकास योजनाओं के अतिरिक्त मोदी ने आदिवासी व वनवासी क्षेत्र के विकास हेतु गुजरात राज्य में वनबन्धु विकास हेतु एक अन्य दस सूत्री कार्यक्रम भी चला रखा है जिसके सभी १० सूत्र निम्नवत हैं:
१-पाँच लाख परिवारों को रोजगार, २-उच्चतर शिक्षा की गुणवत्ता, ३-आर्थिक विकास, ४-स्वास्थ्य, ५-आवास, ६-साफ स्वच्छ पेय जल, ७-सिंचाई, ८-समग्र विद्युतीकरण, ९-प्रत्येक मौसम में सड़क मार्ग की उपलब्धता और १०-शहरी विकास।
श्यामजीकृष्ण वर्मा की अस्थियों का भारत में संरक्षण
नरेन्द्र मोदी ने प्रखर देशभक्त श्यामजी कृष्ण वर्मा व उनकी पत्नी भानुमती की अस्थियों को भारत की स्वतन्त्रता के ५५ वर्ष बाद २२ अगस्त २००३ को स्विस सरकार से अनुरोध करके जिनेवा से स्वदेश वापस मँगाया और माण्डवी (श्यामजी के जन्म स्थान) में क्रान्ति-तीर्थ के नाम से एक पर्यटन स्थल बनाकर उसमें उनकी स्मृति को संरक्षण प्रदान किया। मोदी द्वारा १३ दिसम्बर २०१० को राष्ट्र को समर्पित इस क्रान्ति-तीर्थ को देखने दूर-दूर से पर्यटक गुजरात आते हैं। गुजरात सरकार का पर्यटन विभाग इसकी देखरेख करता है।
आतंकवाद पर मोदी के विचार
१८ जुलाई २००६ को मोदी ने एक भाषण में आतंकवाद निरोधक अधिनियम जैसे आतंकवाद-विरोधी विधान लाने के विरूद्ध उनकी अनिच्छा को लेकर भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आलोचना की। मुंबई की उपनगरीय रेलों में हुए बम विस्फोटों के दृष्टिगत उन्होंने केंद्र से राज्यों को कठोर कानून लागू करने हेतु सशक्त करने की माँग की। उनके शब्दों में -"आतंकवाद युद्ध से भी बदतर है। एक आतंकवादी के कोई नियम नहीं होते। एक आतंकवादी तय करता है कि कब, कैसे, कहाँ और किसको मारना है। भारत ने युद्धों की तुलना में आतंकी हमलों में अधिक लोगों को खोया है।"
नरेंद्र मोदी ने कई अवसरों पर कहा था कि यदि भाजपा केंद्र में सत्ता में आई, तो वह सन् २००४ में उच्चतम न्यायालय द्वारा अफज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने के निर्णय का सम्मान करेगी। भारत के उच्चतम न्यायालय ने अफज़ल को २००१ में भारतीय संसद पर हुए प्रहार का दोषी ठहराया था एवं ९ फ़रवरी २०१३ को तिहाड़ जेल में उसे लटकाया गया।
विवादित काल
२००२ के गुजरात दंगे
२७ फ़रवरी २००२ को अयोध्या से गुजरात वापस लौट कर आ रहे कारसेवकों को गोधरा स्टेशन पर खड़ी गाड़ी में एक हिंसक भीड़ द्वारा आग लगाकर जीवित जला दिया गया। इस काण्ड में 59 कारसेवक मारे गये थे। रोंगटे खड़े कर देने वाली इस घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप समूचे गुजरात में हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे। मरने वाले ११८० लोगों में अधिकांश संख्या अल्पसंख्यकों की थी। इसके लिये न्यूयॉर्क टाइम्स ने मोदी प्रशासन को दोषी ठहराया। कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दलों ने नरेन्द्र मोदी के त्यागपत्र की माँग की। मोदी ने गुजरात की दसवीं विधानसभा भंग करने की संस्तुति करते हुए राज्यपाल को अपना त्यागपत्र सौंप दिया। परिणामस्वरूप पूरे प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। राज्य में पुनः चुनाव हुए जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने मोदी के नेतृत्व में विधान सभा की कुल १८२ सीटों में से १२७ सीटों पर विजय अर्जित की।
अप्रैल २००९ में भारत के उच्चतम न्यायालय ने विशेष जाँच दल भेजकर, यह जानना चाहा कि कहीं गुजरात के दंगों में नरेन्द्र मोदी की चाल तो नहीं। यह विशेष जाँच दल दंगों में मारे गये काँग्रेसी सांसद ऐहसान ज़ाफ़री की विधवा ज़ाकिया ज़ाफ़री की शिकायत पर भेजा गया था। दिसम्बर 2010 में उच्चतम न्यायालय ने वि जाँ द की रपट पर यह निर्णय सुनाया कि इन दंगों में नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला है।
उसके बाद फरवरी २०११ में टाइम्स ऑफ इंडिया ने यह आरोप लगाया कि रपट में कुछ तथ्य जानबूझ कर छिपाये गये हैं और प्रमाण के अभाव में नरेन्द्र मोदी को अपराध से मुक्त नहीं किया जा सकता। इंडियन एक्सप्रेस ने भी यह लिखा कि रपट में मोदी के विरुद्ध साक्ष्य न मिलने की बात भले ही की हो किन्तु अपराध से मुक्त तो नहीं किया। द हिन्दू में प्रकाशित एक रपट के अनुसार नरेन्द्र मोदी ने न केवल इतनी भयंकर त्रासदी पर पानी फेरा अपितु प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न गुजरात के दंगों में मुस्लिम उग्रवादियों के मारे जाने को भी उचित ठहराया। भारतीय जनता पार्टी ने माँग की कि वि जाँ द की रपट को लीक करके उसे प्रकाशित करवाने के पीछे सत्तारूढ़ काँग्रेस पार्टी का राजनीतिक स्वार्थ है इसकी भी उच्चतम न्यायालय द्वारा जाँच होनी चाहिये।
सर्वो न्याया ने बिना कोई निर्णय दिये अहमदाबाद के ही एक मजिस्ट्रेट को इसकी निष्पक्ष जाँच करके अविलम्ब अपना निर्णय देने को कहा। अप्रैल 2012 में एक अन्य विशेष जाँच दल ने फिर ये बात दोहरायी कि यह बात तो सच है कि ये दंगे भीषण थे परन्तु नरेन्द्र मोदी का इन दंगों में कोई भी प्रत्यक्ष हाथ नहीं। 7 मई 2012 को उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त विशेष जज राजू रामचन्द्रन ने यह रपट प्रस्तुत की कि गुजरात के दंगों के लिये नरेन्द्र मोदी पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा १५३ ए (1) (क) व (ख), १५३ बी (1), १६६ तथा ५०५ (2) के अन्तर्गत विभिन्न समुदायों के बीच बैमनस्य की भावना फैलाने के अपराध में दण्डित किया जा सकता है। जबकि रामचन्द्रन की इस रपट पर वि जाँ द ने आलोचना करते हुए इसे दुर्भावना व पूर्वाग्रह से परिपूर्ण एक परिपत्र बताया।
२६ जुलाई २०१२ को नई दुनिया के सम्पादक शाहिद सिद्दीकी को दिये गये एक साक्षात्कार में नरेन्द्र मोदी ने स्पष्ट शब्दों में कहा - "२००४ में मैं पहले भी कह चुका हूँ, २००२ के साम्प्रदायिक दंगों के लिये मैं क्यों माफ़ी माँगूँ? यदि मेरी सरकार ने ऐसा किया है तो उसके लिये मुझे सरे आम फाँसी दे देनी चाहिये।" मुख्यमन्त्री ने गुरुवार को नई दुनिया से फिर कहा- “यदि मोदी ने अपराध किया है तो उसे फाँसी पर लटका दो। किन्तु यदि मुझे राजनीतिक बाध्यता के चलते अपराधी कहा जाता है तो इसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं है।"
यह कोई पहली बार नहीं है जब मोदी ने अपने बचाव में ऐसा कहा हो। वे इसके पहले भी ये तर्क देते रहे हैं कि गुजरात में और कब तक बीते गांठों को लिये बैठे रहोगे? यह क्यों नहीं देखते कि गत एक दशक में गुजरात ने कितनी प्रगति की? इससे मुस्लिम समुदाय को भी तो लाभ पहुँचा है।
किन्तु जब केन्द्रीय क़ानून मन्त्री सलमान खुर्शीद से इस बारे पूछा गया तो उन्होंने दो टूक उत्तर दिया - "पिछले बारह वर्षों में यदि एक बार भी गुजरात के मुख्यमन्त्री के खिलाफ़ एफ॰ आई॰ आर॰ दर्ज़ नहीं हुई तो आप उन्हें कैसे अपराधी ठहरा सकते हैं? उन्हें कौन फाँसी देने जा रहा है?"
बाबरी मस्ज़िद के लिये गत ५४ वर्षों से कानूनी लड़ाई लड़ रहे ९२ वर्षीय मोहम्मद हाशिम अंसारी के अनुसार भाजपा में प्रधानमन्त्री पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी के प्रान्त गुजरात में सभी मुसलमान खुशहाल और समृद्ध हैं। जबकि इसके उलट कांग्रेस सदा मुस्लिमों में मोदी का भय पैदा करती रहती है।
सितंबर 2014 की भारत यात्रा के मध्य ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट ने कहा कि नरेंद्र मोदी को 2002 के दंगों के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में दोषी नहीं ठहराना चाहिए क्योंकि वह उस समय मात्र एक 'पीठासीन अधिकारी' थे जो 'अनगिनत जाँचों' में निर्दोष प्रमाणित हो चुके हैं।
नरेन्द्र मोदी का जन्म तत्कालीन बॉम्बे राज्य के महेसाना जिला स्थित वडनगर ग्राम में हीराबेन मोदी और दामोदरदास मूलचन्द मोदी के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में १७ सितम्बर १९५० को हुआ था।
लोकसभा चुनाव 2014
प्रधानमन्त्री पद के प्रत्याशी
गोआ में भाजपा कार्यसमिति द्वारा नरेन्द्र मोदी को 2014 के लोक सभा चुनाव अभियान का नेतृत्व सौंपा गया था। १३ सितम्बर २०१३ को हुई संसदीय बोर्ड की बैठक में आगामी लोकसभा चुनावों के लिये प्रधानमन्त्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दिया गया। इस अवसर पर पार्टी के शीर्षस्थ नेता लालकृष्ण आडवाणी उपस्थित नहीं रहे और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसकी घोषणा की। मोदी ने प्रधानमन्त्री पद का प्रत्याशी घोषित होने के बाद चुनाव अभियान का नेतृत्व राजनाथ सिंह को सौंप दिया। प्रधानमन्त्री पद का प्रत्याशी बनाये जाने के बाद मोदी की पहली सभा हरियाणा प्रान्त के रिवाड़ी शहर में हुई।
एक सांसद प्रत्याशी के रूप में उन्होंने देश की दो लोकसभा सीटों वाराणसी तथा वडोदरा से चुनाव लड़ा और दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से विजयी हुए।
लोक सभा चुनाव २०१४ में मोदी की स्थिति
नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने एक साक्षात्कार में मोदी को उत्तम प्रधान मन्त्री नहीं माना था। उनके विचार से मुस्लिमों में उनकी स्वीकार्यता संदिग्ध हो सकती है जबकि जगदीश भगवती और अरविन्द पानगढ़िया को मोदी का अर्थशास्त्र उत्तम लगा है। योग गुरु स्वामी रामदेव व मुरारी बापू जैसे कथावाचक ने नरेन्द्र मोदी का समर्थन किया।
पार्टी की ओर से प्र मं प्रत्याशी घोषित किये जाने के बाद नरेन्द्र मोदी ने पूरे भारत का भ्रमण किया। इस मध्य तीन लाख किलोमीटर की यात्रा कर पूरे देश में ४३७ बड़ी चुनावी सभाएँ, ३-डी सभाएँ व चाय पर चर्चा आदि को मिलाकर कुल ५८२७ कार्यक्रम किये। चुनाव अभियान का शुभारम्भ उन्होंने २६ मार्च २०१४ को मां वैष्णो देवी के आशीर्वाद के साथ जम्मू से किया और समापन मंगल पाण्डे की जन्मभूमि बलिया में किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की जनता ने एक अद्भुत चुनाव प्रचार देखा। यही नहीं, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने २०१४ के चुनावों में अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त की।
परिणाम
चुनाव में जहाँ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ३३६ सीटें जीतकर सबसे बड़े संसदीय दल के रूप में उभरा वहीं अकेले भारतीय जनता पार्टी ने २८२ सीटों पर विजय प्राप्त की। काँग्रेस केवल ४४ सीटों पर सिमट कर रह गयी और उसके गठबंधन को मात्र ५९ सीटों से ही सन्तोष करना पड़ा। नरेन्द्र मोदी स्वतन्त्र भारत में जन्म लेने वाले ऐसे व्यक्ति हैं जो सन २००१ से २०१४ तक लगभग १३ वर्ष गुजरात के १४वें मुख्यमन्त्री रहे और भारत के १५वें प्रधानमन्त्री बने।
एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि किसी भी एक दल ने कुल लोकसभा सीटों के १० % का आँकड़ा ही नहीं छुआ।
भाजपा संसदीय दल के नेता निर्वाचित
२० मई २०१४ को संसद भवन में भारतीय जनता पार्टी द्वारा आयोजित भाजपा संसदीय दल एवं सहयोगी दलों की एक संयुक्त बैठक में जब लोग प्रवेश कर रहे थे, तो नरेन्द्र मोदी ने प्रवेश करने से पूर्व संसद भवन को ठीक वैसे ही भूमि पर झुककर प्रणाम किया जैसे किसी पवित्र मन्दिर में श्रद्धालु प्रणाम करते हैं। संसद भवन के इतिहास में उन्होंने ऐसा करके समस्त सांसदों के लिये उदाहरण प्रस्तुत किया। बैठक में नरेन्द्र मोदी को सर्वसम्मति से न केवल भाजपा संसदीय दल अपितु राजग का भी नेता चुना गया। राष्ट्रपति ने नरेन्द्र मोदी को भारत का १५वाँ प्रधानमन्त्री नियुक्त करते हुए इस निमित्त विधिवत पत्र सौंपा। नरेन्द्र मोदी ने सोमवार २६ मई २०१४ को प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली।
वडोदरा सीट से त्यागपत्र दिया
नरेन्द्र मोदी ने २०१४ के लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक अन्तर से जीती गुजरात की वडोदरा सीट से त्यागपत्र देकर संसद में उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट का प्रतिनिधित्व करने का निर्णय किया और यह घोषणा की कि वह गंगा की सेवा के साथ इस प्राचीन नगरी का विकास करेंगे।
भारत के प्रधान मंत्री
ऐतिहासिक शपथ ग्रहण समारोह
नरेन्द्र मोदी का २६ मई २०१४ से भारत के १५वें प्रधानमन्त्री का कार्यकाल राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में आयोजित शपथ ग्रहण के पश्चात प्रारम्भ हुआ। मोदी के साथ ४५ अन्य मन्त्रियों ने भी समारोह में पद और गोपनीयता की शपथ ली। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी सहित कुल ४६ में से ३६ मन्त्रियों ने हिन्दी में जबकि १० ने अंग्रेज़ी में शपथ ग्रहण की। समारोह में विभिन्न राज्यों और राजनीतिक पार्टियों के प्रमुखों सहित सार्कदेशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया गया। इस घटना को भारतीय राजनीति की राजनयिक कूटनीति के रूप में भी देखा गया है।
सार्क देशों के जिन प्रमुखों ने समारोह में भाग लिया उनके नाम इस प्रकार हैं।
- अफ़्गानिस्तान – राष्ट्रपति हामिद करज़ई
- बांग्लादेश – संसद की अध्यक्ष शिरीन शर्मिन चौधरी
- भूटान – प्रधानमन्त्री शेरिंग तोबगे
- मालदीव – राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम
- मॉरिशस – प्रधानमन्त्री नवीनचन्द्र रामगुलाम
- नेपाल – प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला
- पाकिस्तान – प्रधानमन्त्री नवाज़ शरीफ़
- श्रीलंका – प्रधानमन्त्री महिन्दा राजपक्षे
मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के साथ भूटान और दूसरे दक्षिण एशियाई देशों के सरकार प्रमुखों को निमंत्रण दिया था। जानकारों का कहना है कि वे एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में नए प्राण फूंकने और चीन से प्रतिस्पर्धा करने के उद्देश्य से जापान और भारत को एकसाथ लाना चाहते हैं।
ऑल इण्डिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) और राजग का घटक दल मरुमलार्ची द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एमडीएमके) नेताओं ने नरेन्द्र मोदी सरकार के श्रीलंकाई प्रधानमंत्री को आमंत्रित करने के निर्णय की आलोचना की। एमडीएमके प्रमुख वाइको ने मोदी से भेंट की और निमंत्रण का निर्णय बदलवाने प्रयास किया जबकि कांग्रेस नेता भी एमडीएमके और अन्ना द्रमुक आमंत्रण का विरोध कर रहे थे। श्रीलंका और पाकिस्तान ने भारतीय मछुवारों को रिहा किया। मोदी ने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित देशों के इस पग का स्वागत किया।
इस समारोह में भारत के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को आमंत्रित किया गया था। इनमें से कर्नाटक के मुख्यमंत्री, सिद्धारमैया (कांग्रेस) और केरल के मुख्यमंत्री, उम्मन चांडी (कांग्रेस) ने भाग लेने से मना कर दिया। भाजपा और कांग्रेस के बाद सबसे अधिक सीटों पर विजय प्राप्त करने वाली तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने समारोह में भाग न लेने का निर्णय लिया जबकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी ने अपनी जगह मुकुल रॉय और अमित मिश्रा को भेजने का निर्णय लिया।
वड़ोदरा के एक चाय विक्रेता किरण महिदा, जिन्होंने मोदी को प्रस्तावित किया था, को भी समारोह में आमन्त्रित किया गया। तदापि मोदी की माँ हीराबेन और अन्य तीन भाई समारोह में उपस्थित नहीं हुए, उन्होंने घर में ही टीवी पर सीधे प्रसारण कार्यक्रम देखा।
भारतीय अर्थव्यवस्था हेतु किये महत्वपूर्ण उपाय
- योजना आयोग की समाप्ति की घोषणा।
- समस्त भारतीयों के अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में समावेशन हेतु प्रधानमंत्री जन धन योजना का आरंभ।
- रक्षा उत्पादन क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति
भारत के अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
- शपथग्रहण समारोह में समस्त सार्क देशों को आमंत्रण
- सर्वप्रथम विदेश यात्रा के लिए भूटान का चयन
- ब्रिक्स सम्मेलन में नए विकास बैंक की स्थापना
- नेपाल यात्रा में पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा
- अमेरिका व चीन से पूर्व जापान की यात्रा
स्वास्थ्य एवं स्वच्छता
रक्षा नीति
भारतीय सशस्त्र बलों को आधुनिक बनाने एवं उनका विस्तार करने हेतु मोदी के नेतृत्व वाली नई सरकार ने रक्षा पर व्यय को बढ़ाया है। सन २०१५ में रक्षा बजट ११% बढ़ा दिया गया। सितम्बर २०१५ में उनकी सरकार ने समान रैंक समान पेंशन (वन रैंक वन पेन्शन) की बहुत लम्बे समय से की जा रही माँग को स्वीकार कर लिया। मोदी सरकार ने पूर्वोत्तर भारत के नागा विद्रोहियों के साथ शान्ति समझौता किया जिससे १९५० के दशक से चला आ रहा नागा समस्या का समाधान निकल सके।
जनसामान्य से जुड़ने की पहल
देश की आम जनता की बात जाने और उन तक अपनी बात पहुंचाने के लिए नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम की रचना की। इस कार्यक्रम के माध्यम से मोदी ने लोगों के विचारों को जानने का प्रयास किया और साथ ही साथ उन्होंने लोगों से स्वच्छता अभियान सहित विभिन्न योजनाओं से जुड़ने की अपील की।
सम्मान व पुरुस्कार
- अप्रैल २०१६ में नरेन्द्र मोदी सउदी अरब के उच्चतम नागरिक सम्मान 'अब्दुलअजीज अल सऊद के आदेश' (The Order of Abdulaziz Al Saud) से सम्मानित किये गये हैं।
- जून 2016 में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अफगानिस्तान के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार अमीर अमानुल्ला खान अवॉर्ड से सम्मानित किया।
- ऑस्ट्रेलिया और भारत समन्वय
- दो वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलिया के प्र मं टोनी एबट ने कहा 2002 दंगों के लिए मोदी दोषी नहीं
- 11 वीं सदी की चोरी कलाकृतियां टोनी एबट ने लौटाई
प्रमं मोदी की चर्चित विदेश यात्राएँ
1. संयुक्त अरब अमीरात (16-17 अगस्त, 2015)
2. (12-13 जुलाई, 2015)
3. तुर्कमेनिस्तान (10-11 जुलाई, 2015 )
4. रूस, ब्रिक्स सम्मेलन के लिए (8-10 जुलाई, 2015 )
5. कजाकिस्तान (7-8 जुलाई, 2015)
6. उज्बेकिस्तान (6-7 जुलाई, 2015 )
7. बांग्लादेश ( 6-7 जून, 2015)
8. दक्षिण कोरिया (18-19 मई, 2015)
9. मंगोलिया (17-18 मई, 2015 )
10. चीन (14-16 मई, 2015)
11. कनाडा (14-17 अप्रैल, 2015 )
12. जर्मनी (12-14 अप्रैल, 2015 )
13. फ्रांस (9-11 अप्रैल, 2015 )
14. श्रीलंका (13-14 मार्च, 2015 )
15. मॉरीशस (11-12 मार्च, 2015 )
16. सेशेल्स ( 10-11 मार्च, 2015 )
17. नेपाल, दक्षेस शिखर सम्मेलन के लिए (25-27 नवंबर, 2014)
18. फिजी (9 नवंबर, 2014 )
19. ऑस्ट्रेलिया (14-18 नवंबर, 2014)
20. म्यांमार (11-13 नवंबर, 2014 )
21. अमेरिका (26-30 सितंबर, 2014 )
22. ( 30 अगस्त से 3 सितंबर, 2014)
23. नेपाल (3-4 अगस्त, 2014 )
24. ब्राजील, छठे ब्रिक्स सम्मेलन के लिए (14-16 जुलाई, 2104 )
25. भूटान ( 15-16 जून, 2014 )
2. (12-13 जुलाई, 2015)
3. तुर्कमेनिस्तान (10-11 जुलाई, 2015 )
4. रूस, ब्रिक्स सम्मेलन के लिए (8-10 जुलाई, 2015 )
5. कजाकिस्तान (7-8 जुलाई, 2015)
6. उज्बेकिस्तान (6-7 जुलाई, 2015 )
7. बांग्लादेश ( 6-7 जून, 2015)
8. दक्षिण कोरिया (18-19 मई, 2015)
9. मंगोलिया (17-18 मई, 2015 )
10. चीन (14-16 मई, 2015)
11. कनाडा (14-17 अप्रैल, 2015 )
12. जर्मनी (12-14 अप्रैल, 2015 )
13. फ्रांस (9-11 अप्रैल, 2015 )
14. श्रीलंका (13-14 मार्च, 2015 )
15. मॉरीशस (11-12 मार्च, 2015 )
16. सेशेल्स ( 10-11 मार्च, 2015 )
17. नेपाल, दक्षेस शिखर सम्मेलन के लिए (25-27 नवंबर, 2014)
18. फिजी (9 नवंबर, 2014 )
19. ऑस्ट्रेलिया (14-18 नवंबर, 2014)
20. म्यांमार (11-13 नवंबर, 2014 )
21. अमेरिका (26-30 सितंबर, 2014 )
22. ( 30 अगस्त से 3 सितंबर, 2014)
23. नेपाल (3-4 अगस्त, 2014 )
24. ब्राजील, छठे ब्रिक्स सम्मेलन के लिए (14-16 जुलाई, 2104 )
25. भूटान ( 15-16 जून, 2014 )
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक वर्ष के कार्यकाल के बीच उनके नाम एक और विशेष बात जुड़ गई। प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के प्रायः एक वर्ष में विदेशी अतिथि बनने के मामले में वे वर्तमान के दूसरे प्रधानमंत्रियों से आगे निकल गए हैं। किन्तु जैसा आरोप लगाया गया वे घूमने सैर सपाटा करने गए या कुछ और इसकी पड़ताल करने पर क्या पाया ? जाने ..
विदेशी मामलों पर वार्ता, समझौता करने में जितनी सक्रियता मोदी ने दिखाई है, शायद इतनी सक्रियता किसी और प्रधानमंत्री ने दिखाई हो। विपक्ष ने मोदी पर इस बात को लेकर भी निशाना साधा कि उन्होंने भारत में कम और विदेश में अधिक समय बिताया।
मोदी ने 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद संख्या की दृष्टी से स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी दूसरे प्रधानमंत्री के समक्ष अब तक सबसे अधिक बहुपक्षीय और द्विपक्षीय विदेशी प्रवास किए हैं। उन्होंने अपने विदेशी प्रवासों का शुभारम्भ भूटान से किया और वे 15-16 जून, 2014 को थिम्पू और 3-4 अगस्त को नेपाल यात्रा की। इस बीच वे 1 जुलाई को ब्राजीलिया, ब्राजील के प्रवास पर भी गए।
बाद में वे संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने 26 से 30 सितंबर तक अमेरिका गए और वहां भी पांच दिन द्विपक्षीय प्रवास पर रहे। इस मध्य उन्होंने न केवल अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से बातचीत की, वरन वहां भारतीय मूल के लोगों को न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वेयर एरिना में संबोधित भी किया।
मोदी म्यांमार की यात्रा पर गए जहां वह पूर्व एशिया सम्मेलन के लिए 11-13 नवंबर, 2014 तक देश से बाहर रहे। इसके बाद वे 14-18 नवंबर 2014 को जी-20 सम्मेलन में भाग लेने के लिए ऑस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन पहुंचे। प्रधानमंत्री ने 17 नवंबर को सिडनी ओलिम्पिक पार्क में भारतीय मूल के लोगों को संबोधित किया। इस प्रवास के मध्य उन्होंने ऑस्ट्रेलिया से भारत को यूरेनियम की आपूर्ति करने के समझौते पर सफलता पाई। 18 नवंबर 2014 को उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री जॉन एबट के राजधानी, कैनबरा में द्विपक्षीय वार्ता की। यहां से वे 19 नवंबर को वे फिजी के प्रवास पर प्रस्थान कर गए।
प्रधानमंत्री 11 से 19, नवंबर 2014 के बीच म्यांमार, ऑस्ट्रेलिया और फिजी के 9 दिनों के प्रवास पर रहे, वहीं मास के अंत में वे दक्षेस सम्मेलन में भाग लेने हेतु दो दिन नेपाल में रहे। प्रधानमंत्री के रूप में यह उनकी दूसरी नेपाल यात्रा थी। विदेश प्रवास को लेकर विदेश मंत्रालय की सार्वजनिक सूचना में बताया गया कि वे नंवबर माह में कम से कम 11 दिन प्रधानमंत्री देश से बाहर रहे। उनकी फिजी यात्रा इस मामले में ऐतिहासिक थी कि तीन दशकों के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने उस देश की यात्रा की थी जबकि फिजी में बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग रहते हैं।
मोदी की विदेश यात्राओं से भारतीय अर्थव्यवस्था को विशेष आशा रही है और उन्होंने इन देशों में देश के भारोबारी हितों और निवेश को बढ़ाने के लिए बहुत कुछ कहा। जापान यात्रा का व्यवसायी ही नहीं वरन सामरिक और कूटनीतिक महत्व भी था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना था कि उनकी पहली विदेश यात्रा के लिए भूटान 'अद्वितीय और अद्भुत संबंधों' के कारण एक 'स्वाभाविक पसंद' है तथा उनकी यात्रा दोनों देशों के सहयोग को और भी अधिक प्रभावी बनाने पर केंद्रित है। पड़ोसी देशों से सबंध सुधारने के क्रम में मोदी इसी वर्ष 13-14 मार्च को श्रीलंका पहुंचे, जहां से वे मॉरीशस और सेशेल्स भी गए। श्रीलंका में जहां पड़ोसी देश के साथ संबंधों को सामान्य बनाने पर बल था तो मॉरीशस की यात्रा उन भारतीय प्रवासियों से दिलों के तार जोड़ने का उपक्रम थी, जो कि सदियों पूर्व बिहार और उत्तरप्रदेश से वहां गन्ने के खेतों में मजदूरी करने के लिए गए थे। मोदी की श्रीलंका, मॉरीशस और सेशेल्स की पांच दिवसीय यात्रा से आशा की जा सकती है कि इससे देश के हिन्द महासागर क्षेत्र के देशों से संबंध और सुदृढ़ हुए होंगे।
भारत-मॉरीशस का तीन शताब्दियों का साथ :
प्रधानमंत्री मोदी अपने तीन देशों की यात्रा के दूसरे पड़ाव मॉरीशस पहुंचे और उनकी इस यात्रा से दोनों देशों के संबंध और प्रगाढ़ हुए है। किन्तु भारत-मॉरीशस के संबंध आज के नहीं हैं, बल्कि तीन शताब्दी पुराने हैं। इस द्वीप देश को सजाने और संवारने में शुरू से ही भारतीयों का महत्ती योगदान रहा है। यही कारण है कि यह आज पूरे विश्व में छोटे भारत के रूप में ख्यात है।
भारत की समुद्री सुरक्षा सुनिश्चित करने की रणनीति में सेशेल्स एक प्रमुख क्षत्रप की भूमिका में मन गया। प्रधानमंत्री ने राजधानी विक्टोरिया में इस द्विपीय देश के शीघ्र ही भारत, मालदीव और श्रीलंका के बीच नौवहन सुरक्षा सहयोग के क्षेत्र में पूर्ण भागीदारी की आशा जताई थी।
इसी के साथ प्रधानमंत्री ने सेशेल्स के लोगों को निःशुल्क वीजा की सौगात दी। प्रधानमंत्री ने अपने एक दिन के संक्षिप्त प्रवास के मध्य भारत द्वारा सेशेल्स में स्थापित प्रथम तटीय निगरानी रडार (सीएनआर) का उद्घाटन किया। भारत की योजना सेशेल्स में आठ सीएनआर स्थापित करने की है ताकि इस क्षेत्र से गुजरने वाले जहाजों पर कड़ी दृष्टी रखी जा सके। इसी के साथ प्रवास में उन्होंने एक बार फिर विश्वास दिलाया कि भारत सेशेल्स की सुरक्षा, विकास और सहयोग में हर प्रकार की सहायता करेगा।
जापान यात्रा का महत्व : प्रधानमंत्री मोदी की प्रथम जापान यात्रा से दोनों देशों के संबंधों में एक नया अध्याय जुड़ा। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी की उपमहाद्वीप के बाहर भी यह प्रथम विदेश यात्रा थी। इस पांच दिवसीय यात्रा के मध्य जब जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे और नरेंद्र मोदी वार्ता की मेज पर बैठे, तो पूरे विश्व विशेषकर चीन और अमेरिका ने इस बात पर विशेष ध्यान दिया।
जापान की इस यात्रा का अति महत्त्व है। इससे दोनों देशों के बीच सैन्य, रणनीतिक और व्यापारिक संबंधों को आगे ले जाने में सहायता मिली। भारत को जहां अपनी रक्षा, ढांचागत और व्यापारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जापान की आवश्यकता रही, वहीं जापान को भी दक्षिण चीन सागर में चीन के प्रभाव को कम करने के लिए भारत का साथ चाहिए था।
जापान में ढांचागत संरचना का बड़ा उद्योग है और भारत अपने खड्डाग्रस्त सड़कों और जर्जर भवनों के कारण से उसका बड़ा बाजार बन सकता है। किन्तु जानकारों का कहना है कि भारत और जापान मात्र आर्थिक कारणों से एक साथ नहीं हैं। उन्हें जोड़ने वाला चीन है। दोनों ही देशों का चीन के साथ सीमाई विवाद है। चीन निरन्तर अपनी सैनिक क्षमता बढ़ा रहा है, जिससे भारत और जापान दोनों चिंतित हैं। पूर्वी चीनी सागर में कई द्वीपों के स्वामित्व को लेकर भी जापान का चीन के साथ विवाद चल रहा है। जबकि भारत और चीन के बीच 1962 में युद्ध हुआ, जिसके बाद से दोनों के बीच सीमा विवाद जारी है।
अमेरिका से सम्बन्ध सुधरा
: भारत के विदेश मंत्रालय ने अपनी एक रपट में बताया था कि सितंबर में मोदी संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक अधिवेशन में जाएंगे और इस मध्य उनकी भेंट अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से होगी। जहां तक अमेरिका का प्रश्न है, वह जापान का अच्छा सामरिक साथी है। अमेरिका भी चीन के बढ़ती आर्थिक और सैनिक ताकत से चिंतित है और जापान और भारत की निकटता उसे इस कारण से पसंद आती है।
जबकि स्वयं अमेरिका का मोदी के साथ अच्छा संबंध नहीं था। गुजरात के 2002 के दंगों के आरोप में अमेरिका ने मोदी को 2005 से वीजा नहीं दिया। दंगों के समय मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उन पर आरोप हैं कि उन्होंने इसे नियंत्रण करने में पूरी शक्ति नहीं लगाई। जबकि किसी न्यायालय ने उन्हें कभी दोषी करार नहीं दिया है। किन्तु अंतत: अमेरिका को मोदी के प्रभाव का लोहा मानना ही पड़ा। अमेरिका में मोदी का भव्य स्वागत हुआ और भारतीय प्रवासियों ने उनके भाषण को ऐतिहासिक बना दिया।
ऑस्ट्रेलिया में मोदी की धूम...
अमेरिका की ही भाँति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर विदेशों में बसे भारतीयों से खुल कर मिलने की तैयारी कर यात्रा की और अब बारी ऑस्ट्रेलिया की थी। उन्होंने सिडनी में भारतीय प्रवासियों के बीच अपनी बात रखी और यहां भी न्यूयॉर्क की भाँति उन्होंने 17 नवंबर को सिडनी के सिडनी ओलिम्पिक पार्क में भारतीय मूल के लोगों को संबोधित किया और 18 नवंबर को ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री के साथ कैनबरा में द्विपक्षीय वार्ता की। प्रधानमंत्री 19 नवंबर, 2014 को फिजी के प्रवास पर रहे। फिजी में 33 वर्ष बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री वहां पहुंचा।
प्रधानमंत्री ने फ्रांस में राफेल हवाई जहाज के 20 बिलियन डॉलर के सौदे को पक्का किया। जैतपुर परमाणु संयंत्र के सौदे में भी अधिक कठिनाई नहीं होनी चाहिए। सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलाने पर भी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने कोई आश्वासन नहीं दिया।
यूरोपीय संघ से व्यापार में भारत का पलड़ा डेढ़ बिलियन यूरो से भारी रहा। यदि यूरोपीय संघ के देश भारत में अपना विनियोग दुगुना कर दें, तो यह यात्रा सफल मानी जाती है। यदि दोनों पक्षों के बीच मुक्त व्यापार आरम्भ हो जाए, तो सोने पर सुहागा हो सकता है। यदि यह यात्रा मोदी को यह प्रेरणा दे सके कि वे यूरोपीय संघ की भांति कोई ढांचा दक्षिण एशिया में खड़ा कर सकें, तो उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।
'मेक इन इंडिया' के लिए निवेश आमंत्रित करने के उद्देश्य से जर्मनी पहुंचे प्र मं मोदी तीन देशों की विदेश यात्रा के दूसरे चरण में हनोवर पहुंचे थे जहां उन्होंने 'मेक इन इंडिया' अभियान में जर्मनी का सहयोग मांगा और जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल से द्विपक्षीय सहयोग को आगे बढ़ाने का आग्रह किया। मोदी ने विश्व प्रसिद्ध हनोवर मेला भी देखा और मेले में प्रदर्शित तकनीकों का आंकलन लिया।
फ्रांसीसी राष्ट्रपति के साथ 'नाव पे चर्चा' : मोदी ने फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलोंद के साथ अद्भुत शैली में वार्ता की। उन्होंने गत शुक्रवार को पेरिस के बीच से बहने वाली ला सिएन नदी में ओलोंद के साथ नाव की यात्रा की और दोनों नेताओं के बीच 'नाव पे चर्चा' हुई।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने प्रवास के अंतिम चरण में कनाडा पहुंचे, जहां दोनों देशों के बीच परमाणु मुद्दे सहित ऊर्जा सहयोग और भारत के विकास के लिए व्यापार और तकनीकी सहयोग पर बातचीत हुई। कनाडा में यूरेनियम तथा अन्य खनिजों का भण्डार है। मोदी ने कनाडा से यूरेनियम प्राप्त करने का समझौता किया है और कनाडा ने भारत के उर्जा क्षेत्र को विकसित करने में भी सहायता का आश्वासन दिया।
क्या विदेशी राष्ट्रप्रमुखों से यह पाने हेतु मोदी के स्तर से कम किसी सी यह संभव था ? वो राष्ट्र सेवा में लगा रहा, हम कीचड़ उछलने वालों की बकबक सुनते रहे। अब तो संभालो वर्ना राष्ट्रद्रोही कहलाओगे।
शुभकामनाओं सहित- ईश्वर उन्हें कम से कम तब तक भारत का प्रधान मंत्री बनाये रखे, जब तक "स्वर्णिम भारत विश्व गुरु" का स्वप्न साकार नहीं हो जाता। ......
(शब्द लगभग 10, 000) व 8 चित्र सहित
उसका सकारात्मक व्यापक विकल्प का सार्थक संकल्प, प्रेरक राष्ट्र नायको का यशगान
-युगदर्पण मीडिया समूह YDMS - तिलक संपादक
आओ मिलकर इसे बनायें; - तिलक