तिलक राज रेलन -पश्चिम बंगाल में गत् दिनों कोलकाता महानगर व स्थानीय निकायों के चुनावों के परिणाम घोषित होने पर जैसी कि अपेक्षा की जा रही थी, राज्य के अधिकांश नगर निगमों पर ममता बैनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस ने अपना अधिकार जमा लिया है। कोलकाता के 141 वार्ड वाले नगर निगम में त्रि. मू. कांग्रेस को 95 में विजय मिली । तथा 16 जिलों के 81 स्थानीय निकायों में 24 त्रि. मू. काग्रेस की,33 त्रिशंकु व 7 काग्रेस को मिली; शेष 18 ही बचीं वामपंथियों के पास । जिलानुसार वामपंथियों के गढ़ उत्तरी 24 परगना की 16 में से 12 तथा हुगली की 16 में से 11 तथा बिधान नगर 25 में से 16 त्रि.मू.का. ने छीन ली हैं । और राज्य में अकेले चुनाव लड़ने की रणनीति पर चलने का दंभ भरने वाली कांग्रेस तो कई जगहों पर स्पर्धा से भी बाहर दिखाई देती है । परस्पर टकराव से केंद्र सरकार में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की सहयोगी पार्टी होने के बाद भी तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में अपने अकेले दम पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया था। जबकि कांग्रेस पाटी ने भी राज्य के निकायों की अधिकांश सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे। इस प्रकार पश्चिम बंगाल में अधिकांशत: त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति बन गई थी जिसमें अन्तत: तृणमूल कांग्रेस ने ही सफलता पाई।इन परिणामों के भावी संकेत यही हैं कि बंगाल के लालगढ़ ध्वस्त होने के साथ ही देश की राजनीति पर भी दूरगामी प्रभाव होंगे ।
पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम आ जाने के बाद अब राजनैतिक क्षेत्रों में कई प्रकार के गणित लगने लगे हैं। लगता है कि गत् 3 दशकों से राज्य विधानसभा पर निंतर अपना लाल परचम लहराने वाला वामपंथी दल 2011 के निर्धारित विधानसभा चुनावों के बाद, क्या अब पश्चिम बंगाल के राजनैतिक क्षितिज से अपनी बिदाई लेने वाला है? सोनिया व राहुल की कांग्रेस पार्टी के ‘एकला चलो’ की नीति भी क्या पश्चिम बंगाल में असफल है? दिल्ली दरबार की राजनीति में ममता बैनर्जी को अपने पीछे रखकर संप्रग सरकार चलाने वाली कांग्रेस पार्टी क्या पश्चिम बंगाल में अपना राजनैतिक अस्तित्व बचाने हेतु ही वहां ममता बैनर्जी की पिछलग्गू बनी रह सकेगी? पश्चिम बंगाल की राजनीति में आने वाला समय क्या अब ममता बैनर्जी का होगा? एक बार फिर राज्य में इसी प्रकार का त्रिकोणीय संघर्ष होगा या कांग्रेस पार्टी अपनी ही गोद में पाली-पोसी नेत्री ममता बैनर्जी द्वारा गठित तृणमूल कांग्रेस के पीछे चलकर तथा उनकी शर्तों,उनकी दया व उन्हीं के द्वारा तय की गई सीटों को लेकर अपने अस्तित्व को पश्चिम बंगाल में बचाए रखने के लिए बाध्य होगी?एक यक्ष प्रश्न यह भी कि आगामी 1 वर्ष में वामपंथी अपने इस ढहते हुए किले को बचाने के लिए अब क्या अंतिम प्रयास करेंगे? अपनी इन चेष्टाओं में वे कितने सफल हो सकेंगे। एक और यक्ष प्रश्न पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम आ जाने के बाद यह भी खड़ा हो रहा है कि गत् 3 दशकों तक वामपंथी विचारधारा व कार्य के बल पर जमे थे या जनता को वामपंथ का विकल्प कांगेस में नहीं मिल पा रहा था जो वह अब ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस में देख रही है।
स्थानीय निकायों के चुनावों में हुए पार्टी प्रदर्शन को वाम नेता अपने लिए ख़तरे की घंटी अवश्य स्वीकार कर रहे हैं। परंतु साथ-साथ झेंप मिटाने हेतु उनका यह भी कहना है कि पार्टी ने कई चुनाव क्षेत्रों में 2009 में हुए संसदीय चुनावों से भी बेहतर प्रदर्शन किया है।कहने को तो वाम नेता कितना ही कहें कि राज्य की जनता के लिए वे इतना कुछ नहीं कर पाए जितना कि जनता उनसे अपेक्षा रखती थी। वे 2011 के विधानसभा चुनाव से पूर्व अवश्य इस बात की कोशिश करेंगे कि वे मात्र इस 1 वर्ष में यह देखें कि किन कारणों के चलते जनता उनसे दूर होती जा रही है तथा उन्हें पुन: अपने विश्वास में कैसे लिया जाए? यह भी कि वामपंथ की स्थिति सुधरनी शुरु हो चुकी है।
जहाँ तक प्रश्न है कांग्रेस व तृणमूल के बीच संबंधों का तथा इन के बीच पश्चिम बंगाल में कांग्रेस पार्टी के अपने अकेले अस्तित्व का, तो इस विषय पर कांग्रेस पार्टी अवश्य दुविधा में पड़ती दिखाई दे रही है। गत् कई वर्षों से यह देखा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश व बिहार तथा अब पश्चिम बंगाल सहित कई राज्यों में अपने अकेले दमखम पर चुनाव लड़ने की रणनीति पर काम करती रही है। उत्तर प्रदेश में इस रणनीति के कुछ सकारात्मक परिणाम भी मिले तथा बिहार में अपेक्षाकृत कम। परंतु पश्चिम बंगाल के इन नवीनतम स्थानीय निकाय चुनावों के परिणामों ने तो कांग्रेस की ‘एकला चलो’ की रणनीति हवा ही निकाल दी है।
एक तो क्षेत्रीय व स्थानीय समस्याओं को तथा क्षेत्र की जनता की नब्ज को भी उसी राज्य के प्रतिनिधि नेतागण कहीं अधिक भली प्रकार समझते हैं। इस समय लगभग पूरे देश का अधिकांश मतदाता अपने राज्य से जुड़ी समस्याओं, उसके विकास तथा उत्थान की बातों को सुनने में अधिक रूचि लेता दिखाई दे रहा है। अर्थात् क्षेत्रीय समस्याएं राष्ट्रीय सोच व समस्याओं पर हावी होती जा रही हैं। इसका मुख्य कारण है आरंभ से ही सत्ता में रहकर कांग्रेस अपनी कपट नीति व कलंकित चरित्र के हाथों जनता का विश्वास खो चुकी थी । स्पष्टत: ऐसे में क्षेत्रीय प्रश्नों के कारण क्षेत्रवाद से सम्मोहित जनता फंसी संकीर्ण विघटनकारी राजनीति के क्षेत्रीय क्षत्रपों के बीच।
प्रदेश में शायद ही कोई ऐसा जिला होगा, जहां वामपंथ के कद्दावर नेताओं ने अपनी हार के सितमगरों से समकक्ष होने के लिए कोई ठोस प्रबन्ध किए होंगे। सच कहें तो इनकी दुर्बल मन:स्थिति ही हार का प्रमुख कारण है। यह तथ्य किससे छिपा है कि वाममोर्चा गठबंधन के पास लोकसभा के ठीक पहले तक लगभग 50% जिलों का समर्थन था। मान भी लिया जाए कि जिले में घूमघूमकर ममता बनर्जी ने अपने पक्ष में लहर पैदा की, तो इससे समतुल्य होने के लिए वामपंथी नेताओं ने राजनैतिक प्रबंध क्यों नहीं किए?
नंदीग्राम और सिंगुर जैसे मसले लोकसभा चुनाव के पहले तक वामपंथियों के पक्ष में माने जा रहे थे। व्यावसायिक सोच के लोग ममता बनर्जी को कभी भी गंभीरता से नहीं लेते थे। 2009 के प्रारंभ में कोलकाता के धर्मतल्ला में 26 दिनों की भूख हड़ताल से लेकर सिंगुर में लोकसभा चुनाव के ठीक पहले तक लगातार चले अनशन तक ममता बनर्जी का कथन कभी भी शहरी मतदाता के गले नहीं उतरा। लोग ममता को हड़तालवादी, विनाशकारी और न जाने क्या-क्या कहने लगे थे। टाटा का नैनो प्रकल्प बंगाल से गुजरात चला गया, तब भी ममता पर ही तर्जनी उठी थी। वामपंथियों ने इस जनभावना को अपने पक्ष में रखने का कोई प्रबन्ध नहीं किया। लोकसभा चुनाव के पहले तक पूरा मीडिया ममता के विरुद्ध था। लोग ममता को विकास का बनाम मानते थे। किन्तु, अकेली ममता बनर्जी ने वामपंथियों के लालगढ़ को भेदने में एक-एक पल का भरपूर उपयोग किया।
ममता बैनर्जी ने आरंभ में सदा ही कांग्रेस पार्टी के सदस्य व नेत्री के रूप में वामपंथियों के समक्ष कांग्रेस के पक्ष में संघर्ष किया है तथा राज्य में कांग्रेस को जिंदा रखे रहने में अपना पूरा योगदान दिया। परंतु राजीव गांधी के समय में जब उन्हें यह आभास होने लगा कि राष्ट्रीय राजनीति को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस पार्टी अब वामपंथियों की ओर झुकने लगी है तथा भाजपा को रोकने के लिए वामपंथियों से हाथ मिलाने की तैयारी कर रही है। उसी समय (राजीव गांधी की हत्या के पश्चात) ममता बेनर्जी ने कांग्रेस पार्टी से अपना नाता तोड़ लिया और 1997 में अपनी अलग पार्टी गठित कर ली।
ममता का यह मानना है चूंकि कांग्रेस व वामपंथी दो भिन्न-भिन्न विचारधाराएं हैं अत: यह दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते।वामपंथियों की पराजय का एक और कारण यह भी रहा है कि वामपंथी प्रगट में गरीबों, किसानों, श्रमिकों, कर्मचारियों,कामगारों व दिहाड़ीदारों के पक्ष में बोलते नजर आते हैं। किन्तु व्यवहार में तिजोरी भरने के लोभ में वह पूंजीवाद व उद्योगपतियों के समर्थक नजर आने लगते है। ऐसे मे सिंगूर जैसी घटना होने पर किसानों व मजदूरों के पक्ष में जहां वामपंथी खड़े नजर आते थे वहां ममता की टी एम सी खड़ी दिखाई दी। तो दूसरी ओर वामपंथी सरकार के जनविरोधी रूप में सशस्त्र बंगाल पुलिस।ऐसे में संघर्ष के व्यावहारिक रूप में बंगाली जनता ने वामपंथी दलों के बजाए ममता बैनर्जी को अपने पक्ष में संघर्ष करते पाया।
यही नहीं, इस सवाल का जवाब तो राज्य में निवेश करने वाले बड़े कारोबारी में मांग रहे हैं कि सोमनाथ चटर्जी का उदारवादी चेहरा दिखाकर एक दशक पहले औद्योगिक विकास निगम के माध्यम से प्रतिदिन जो सैंकड़ों-हजारों करोड़ के निवेश का झांसा दिया गया था, उसमें कितना निवेश कारगर रूप में लगा और कितनों को रोजगार मिला? गरीब किसानों की जमीन आज बंजर क्यों पड़ी है? अरबों रूपए खपाकर कारोबारी क्यों रो रहे हैं?
वामपंथियों के पास अब समय नहीं रह गया है।अब 35 वर्ष की सत्ता के बाद एक बार मोर्चाके शासन पर विराम लगना अवश्यंभावी प्रतीत हो रहा है।राज्य के स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम में सिंगूर व नंदीग्राम जैसी घटनाओं की छाया भी स्पष्ट देखी जा सकती है। कुल मिलाकर राज्य की जनता ने स्थानीय निकायों के चुनाव परिणामों के माध्यम से राज्य की भविष्य की राजनीति के मस्तक पर जो रचना लिखी है उससे इन परिणामों को पश्चिम बंगाल राज्य का निर्णायक मोड़ माना जा रहा है।
किन्तु कुछ लोग यह शंका जाता रहे हैं कि ममता बनर्जी के हुकूमत में आ जाने से भी प्रदेश में चल रहा अमावसी दौर नया उजाला नहीं ला पाएगा। ममता की अपनी लड़ाकू छवि हो सकती है, पर उनकी अकड़, उनकी जिद, उनका बचपना, उनका बिदकना, उनकी कार्यशैली प्राइमरी में पढऩे वाले बच्चे की चिंतनधारा से अलग नहीं है। उनके साथ जो चेहरे हैं, और उन चेहरों के पीछे जो सच छिपा है, उन चेहरों से जो भाषा निकलती है-वह कहीं से गणतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास करने वाले के लिए सम्मानजनक नहीं है। केंद्रीय मंत्री बन चुके तृणमूल के कुछ बड़े नेताओं की भाषा से तो वामपंथी विचारधारा में विश्वास रखने वाला छोटा कैडर भी सभ्य भाषा बोलता है। वामपंथियों की साथ चलने वाले मोर्चे की सहोदर पार्टियों के नेताओं का विरोध सहने का धैर्य है, लेकिन यह सब गुण ममता में कहीं नहीं हैं। जिद और अकड़ पर सूबे में हुकूमत चलाने की सोच उन्हें कभी भी पटखनी दे सकती है।
हो सकता है यह वामपंथी निकटता के पत्रकारों कि सोच या अनुभव हों? यदि यह सही है तो ममता को शीघ्र ही इस पर नियंत्रण पाना होगा! तभी वामपंथी किला पूरी तरह स्थाई रूप से ध्वन्स्त होगा! यहाँ अंत नहीं गुजरात व बिहार कि भांति राज्य को सकारात्मक विकल्प चाहिए! शुभ कामनाओं सहित
यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था,आजभी इसमें वह गुण,योग्यता व क्षमता विद्यमान है! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
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