छत्रपति शिवाजी का मराठा साम्राज्य
कई अपने भाग्य में सुख वैभव लेकर आते है, कई अनंत संघर्ष से अपना भाग्य स्वयं रचते हैं। क्षमता साहस शौर्य पराक्रम के बल से मुगलों के साम्राज्य में चुनौती बन कर शासन कर पाने की, शिवाजी व महाराणा प्रताप की, गाथाएं भारतीय जन मानस को उत्साहित करती है । पश्चिम भारत का इतिहास सदा आक्रान्ताओं को रोकने का रहा है पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र के शौर्य देश भक्तों को प्रेरणा देती रही हैं व देती रहेंगी तथा राष्ट्र को खंडित करने या इसकी पराजय का सपना देखने वालों की आँखों को खटकते रहेंगे। भारत के स्वाभिमान के लिए छत्रपति शिवाजी राजे भोसले (1630-1680) ने 339 वर्ष पूर्व 20 जून, 1674 को पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। इसके लिए उन्होंने कई वर्ष औरंगज़ेब के मुगल साम्राज्य से संघर्ष किया।
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इतिहास को सही दृष्टी से परखें। गौरव जगाएं, भूलें सुधारें। आइये,
आप ओर हम मिलकर इस दिशा में आगे बढेंगे, देश बड़ेगा । तिलक YDMS
यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था, आज भी इसमें वह गुण,
योग्यता व क्षमता विद्यमान है | आओ मिलकर इसे बनायें; - तिलक
कई अपने भाग्य में सुख वैभव लेकर आते है, कई अनंत संघर्ष से अपना भाग्य स्वयं रचते हैं। क्षमता साहस शौर्य पराक्रम के बल से मुगलों के साम्राज्य में चुनौती बन कर शासन कर पाने की, शिवाजी व महाराणा प्रताप की, गाथाएं भारतीय जन मानस को उत्साहित करती है । पश्चिम भारत का इतिहास सदा आक्रान्ताओं को रोकने का रहा है पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र के शौर्य देश भक्तों को प्रेरणा देती रही हैं व देती रहेंगी तथा राष्ट्र को खंडित करने या इसकी पराजय का सपना देखने वालों की आँखों को खटकते रहेंगे। भारत के स्वाभिमान के लिए छत्रपति शिवाजी राजे भोसले (1630-1680) ने 339 वर्ष पूर्व 20 जून, 1674 को पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। इसके लिए उन्होंने कई वर्ष औरंगज़ेब के मुगल साम्राज्य से संघर्ष किया।
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शिवाजी राजे भोंसले | ||
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छत्रपति ब्रिटिश संग्रहालय में स्थित शिवाजी महाराज का असली चित्र | ||
राजकाल | 1674–1680 | |
राज्याभिषेक | 1674 | |
जन्म | 19 फरवरी, 1630 | |
शिवनेरी दुर्ग | ||
मृत्यु | 3 अप्रैल, 1680 | |
रायगढ़ | ||
पूर्वाधिकारी | शाहजी | |
उत्तराधिकारी | सम्भाजी | |
पिता | शाहजी | |
माता | जीजाबाई |
आरंभिक जीवन
शाहजी भोंसले (मूलत: कुर्मी जाति से संबद्धित उपजाति जो कृषि संबद्धित कार्य करते हैं) के पिता अप्रतिम शूरवीर थे और उनकी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते थीं । उनकी प्रथम पत्नी जीजाबाई (राजमाता जिजाऊ) की कोख से शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी, 1630 को, पूना (पुणे) से उत्तर की तरफ़ जुन्नार नगर के पास शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। उनका बचपन राजा राम, गोपाल, संतों तथा रामायण, महाभारत की कहानियों और सत्संग मे बीता। बचपन में राजनीति एवं युद्ध की शिक्षा लेकर वे सभी कलाओ मे निपुण हो गए थे। उनकी माता जी जीजाबाई जाधव कुल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली थी और उनके पिता एक शक्तिशाली सामन्त थे । शिवाजी महाराज के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे उस युग के वातावरण और घटनाओँ को भली प्रकार समझने लगे थे। उनके बाल-हृदय में स्वाधीनता की लौ प्रज्ज्वलित हो गयी थी। शासक वर्ग की करतूतों पर वे बेचैन हो जाते थे और उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों का संगठन किया। अवस्था बढ़ने के साथ विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ फेंकने का उनका संकल्प प्रबलतर होता गया।
छत्रपति शिवाजी महाराज (10 वर्ष) का विवाह सन् 14 मइ 1640 में सइबाई निम्बालकर के साथ लाल महल,पुना में हुआ था ।
सैनिक वर्चस्व का आरंभ
शिवाजी महाराज ने अपने संरक्षक कोणदेव की सलाह पर बीजापुर के सुल्तान की सेवा करना अस्वीकार कर दिया । उस समय बीजापुर राज्य में आपसी संघर्ष तथा विदेशी मुगल आक्रमणकाल चल रहा था । ऐसे साम्राज्य के सुल्तान की सेवा करने के बदले वे मावलों को बीजापुर के विरुद्ध संगठित करने लगे । मावल प्रदेश पश्चिम घाट से जुड़ा 150 किलोमीटर लम्बा और 30 किमी चौड़ा क्षेत्र है । वे संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण कुशल योद्धा माने जाते हैं । इस प्रदेश में मराठा और सभि जाति के लोग रहते हैं । शिवाजी महाराज इन सभि जाति के लोगो को लेकर मावलों (मावळा) नाम देकर सभि को संगठित किया और उनसे सम्पर्क कर उनके प्रदेश से परिचित हो गए थे । मावल युवकों को लाकर उन्होंने दुर्ग निर्माण का कार्य आरंभ कर दिया था । मावलों का सहयोग शिवाजी महाराज के लिए उतना ही महत्वपूर्ण रहा, जितना शेरशाह सूरी के लिए अफ़गानों का साथ ।
शिवाजी महाराज ने जब बीजापुर में प्रवेश किया उस समय बीजापुर में अराजकता का वातावरण था । शिवाजी महाराज ने बीजापुर के दुर्गों पर अधिकार करने की नीति अपनाई । सबसे पहला दुर्ग था तोरण का दुर्ग ।
दुर्गों पर नियंत्रण
तोरण का दुर्ग पूना के दक्षिण पश्चिम में 30 किलोमीटर की दूरी पर था । उन्होंने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना दूत भेजकर संदेश भिजवाया कि वे पहले किलेदार की तुलना में अधिक धन देने को तैयार हैं और यह क्षेत्र उन्हें सौप दिया जाय । उन्होने आदिलशाह के दरबारियों को पहले ही अपने पक्ष में कर लिया था और अपने दरबारियों की सलाह पर आदिलशाह ने शिवाजी महाराज को उस दुर्ग का अधिपति बना दिया । उस दुर्ग में मिली सम्पत्ति से शिवाजी महाराज ने दुर्ग की सुरक्षात्मक कमियों की मरम्मत का काम करवाया । इससे कोई 10 किलोमीटर दूर राजगढ़ दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया ।
शिवाजी महाराज की इस साम्राज्य विस्तार की नीति की भनक जब आदिलशाह को मिली तो वह क्षुब्ध हुआ । उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने को कहा । शिवाजी महाराज ने अपने पिता के क्षेत्र का प्रबन्ध अपने हाथों में लेकर नियमित लगान भी बन्द कर दिया । राजगढ़ के बाद उन्होने चाकन के दुर्ग और उसके बाद कोंडना के दुर्ग पर अधिकार कर लिया।
1665 ई. में राजा जयसिंह की मध्यस्थता द्वारा शिवाजी ने औरंगज़ेब से सन्धि करके यह क़िला मुग़ल सम्राट को कुछ अन्य क़िलों के साथ दे दिया पर औरंगज़ेब की धूर्तता के कारण यह सन्धि अधिक न चल सकी और शिवाजी ने अपने सभी क़िलों को वापस ले लेने की योजना बनाई। उनकी माता जीजाबाई ने भी कोंडाणा के क़िले को ले लेने के लिए शिवाजी को बहुत उत्साहित किया।
1670 ई. में शिवाजी के बाल मित्र माबला सरदार तानाजी मालुसरे अंधेरी रात में 300 माबालियों को लेकर क़िले पर चढ़ गए और उन्होंने उसे मुग़लों से छीन लिया। इस युद्ध में वे क़िले के संरक्षक उदयभानु राठौड़ के साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। मराठा सैनिकों ने अलाव जलाकर शिवाजी को विजय की सूचना दी। शिवाजी ने यहाँ पर पहुँचकर इसी अवसर पर यह प्रसिद्ध शब्द कहे थे कि गढ़ आला सिंह गेला अर्थात 'गढ़ तो मिला किन्तु सिंह (तानाजी) चला गया।' उसी दिन से 'गोंडाणा' का नाम सिंहगढ़ हो गया।कोंडना पर अधिकार करने के बाद उसका नाम सिंहगढ़ रखा गया । शाहजी राजे को पूना और सूपा की जागीरदारी दी गई थी और सूपा दुर्ग की उनके सम्बंधी बाजी मोहिते के हाथ में थी । शिवाजी महाराज ने रात के समय सूपा के दुर्ग पर आक्रमण करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया और बाजी मोहिते को शाहजी राजे के पास कर्नाटक भेज दिया । उसकी सेना का कुछ भाग भी शिवाजी महाराज की सेवा में आ गया । इसी समय पुरन्दर के किलेदार की मृत्यु हो गई और किले के उत्तराधिकार के लिए उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई । दो भाइयों के निमंत्रण पर शिवाजी महाराज पुरन्दर पहुँचे और कूटनीति का सहारा लेते हुए उन्होंने सभी भाइय़ों को बन्दी बना लिया । इस तरह पुरन्दर के किले पर भी उनका अधिकार स्थापित हो गया । अब तक की घटना में शिवाजी महाराज को कोई युद्ध नहीं करना पड़ा था । 1647 ईस्वी तक वे चाकन से लेकर नीरा तक के भूभाग के भी अधिपति बन चुके थे । अपनी बढ़ी सैनिक शक्ति के साथ शिवाजी महाराज ने मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करने की योजना बनाई ।
1665 ई. में राजा जयसिंह की मध्यस्थता द्वारा शिवाजी ने औरंगज़ेब से सन्धि करके यह क़िला मुग़ल सम्राट को कुछ अन्य क़िलों के साथ दे दिया पर औरंगज़ेब की धूर्तता के कारण यह सन्धि अधिक न चल सकी और शिवाजी ने अपने सभी क़िलों को वापस ले लेने की योजना बनाई। उनकी माता जीजाबाई ने भी कोंडाणा के क़िले को ले लेने के लिए शिवाजी को बहुत उत्साहित किया।
एक अश्वारोही सेना का गठन कर शिवाजी महाराज ने आबाजी सोन्देर के नेतृत्व में कोंकण के विरूद्ध एक सेना भेजी । आबाजी ने कोंकण सहित नौ अन्य दुर्गों पर अधिकार कर लिया । इसके अतिरिक्त ताला, मोस्माला और रायटी के दुर्ग भी शिवाजी महाराज के अधीन आ गए थे । प्राप्त सारी सम्पत्ति रायगढ़ में सुरक्षित रखी गई । कल्याण के गवर्नर को मुक्त कर शिवाजी महाराज कोलाबा की ओर बढ़े और यहाँ के प्रमुखों को विदेशियों के विरुद्ध युद्ध के लिए प्रेरित किया ।
शाहजी की बन्दी और युद्धविराम
बीजापुर का सुल्तान शिवाजी महाराज के कारन पहले ही आक्रोश में था। उसने शिवाजी महाराज के पिता को बन्दी बनाने का आदेश दे दिया। शाहजी राजे उस समय कर्नाटक में थे और एक विश्वासघाती सहायक बाजी घोरपड़े द्वारा बन्दी बनाकर बीजापुर लाए गए। उन पर यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने गोलकोंडा के शासक कुतुबशाह की सेवा प्राप्त करने की कोशिश की थी और इस कारण आदिलशाह का शत्रु। बीजापुर के दो सरदारों की मध्यस्थता के बाद शाहाजी महाराज को इस शर्त पर मुक्त किया गया कि वे शिवाजी महाराज पर लगाम कसेंगे।
प्रभुता का विस्तार
शाहजी की मुक्ति की शर्तों के कारण अगले चार वर्षों तक शिवाजी महाराज ने बीजापुर के विरुद्ध कोई आक्रमण नहीं किया। इस बीच उन्होंने अपनी सेना संगठित की, तथा दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। इस क्रम में बाधा बने जावली राज्य (सतारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित) शासक मोरे चन्द्रराव को स्वराज मे शामिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। शिवाजी ने सन् 1656 में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्र बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्र्हीत आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक[मुरारबाजी देशपाडे] भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए।मुगलों से पहली मुठभेड़
उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय 1 नवम्बर, 1656 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता की स्थिति हो गई। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगजेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े पा लिये। अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के मिले, उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी अधिकार जमाया । इसके परिणामस्वरूप औरंगजेव शिवाजी से खफ़ा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहाँ के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ संधि कर ली और इसी समय शाहजहाँ बीमार पड़ गया। उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगजेब उत्तर भारत चला गया और वहाँ शाहजहाँ को कैद करने के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया ।
कोंकण पर अधिकार
दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डावाँडोल राजनैतिक स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। पर जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लडाई कई दिनो तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। कल्य़ाण तथा भिवण्डी पर अधिकार करने के बाद वहाँ नौसैनिक अड्डा बना लिया। इस समय तक शिवाजी 40 दुर्गों के अधिपति बन चुके थे।
बीजापुर से संघर्ष
इधर औरंगजेब के आगरा (उत्तर की ओर) लौट जाने के बाद बीजापुर के सुल्तान ने भी राहत की सांस ली। अब शिवाजी ही बीजापुर के सबसे प्रबल शत्रु रह गए थे। शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमे अपनी असमर्थता प्रकट की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खाँ) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, के निकट शिरवल नामक स्थान तक आ गया । पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे । अफजल खाँ ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर कुलकर्णी को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा । उसने उसके द्वारा ये संदेश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले, तों सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियंत्रण में हैं । साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा । शिवाजी के मंत्री और सलाहकार तो उस संधि के पक्ष मे थे, पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई । उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनीथ को वस्तुस्थिति जानने अफजल खाँ के पास भेजा । गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयंत्र रचकर अफजल खाँ शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है । अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खाँ को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खाँ को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया । सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे। मिलने के स्थान पर जब दोनो मिले, तब अफजल खाँ ने अपने कटार से शिवाजी पर वार किया; बचाव मे शिवाजी ने अफजल खाँ को अपने वस्त्रो वाघनखो से मार दिया [10 नवमबर 1659]|
अफजल खाँ की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया । इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खाँ के आक्रमण को विफल भी किया । इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका अधिकार हो गया । अब बीजापुर के आतंकित सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया । 2 अक्टूबर, 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया । शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे । बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला । इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया । इस संधि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया । सन् 1662 में हुई इस सन्धि के अनुसार शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान द्वारा स्वतंत्र शासक की मान्यता मिली । इसी संधि के अनुसार उत्तर में कल्याण से लेकर दक्षिण में पोण्डा तक (250 किलोमीटर) का और पूर्व में इन्दापुर से लेकर पश्चिम में दावुल तक (150 किलोमीटर) का भूभाग शिवाजी के नियंत्रण में आ गया । शिवाजी की सेना में इस समय तक 30000 पैदल और 1000 घुड़सवार हो गए थे ।
मुगलों के साथ संघर्ष
उत्तर भारत में बादशाह बनने की होड़ खतम होने के बाद औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की तरफ गया । वो शिवाजी की बढ़ती प्रभुता से परिचित था और उसने शिवाजी पर नियंत्रण रखने के उद्येश्य से अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया । शाइस्का खाँ अपने 1,50,000 सैनिक लेकर सूपन और चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर पूना पहुँच गया । उसने 3 साल तक मावल मे लुटमार की । एक रात शिवाजी ने अपने 350 मवलो के साथ उनपर हमला कर दिया । शाइस्ता 3 दिन न टिक सका, तो खिड़की के रास्ते बच निकलने में सफल रहा, पर उसे इसी क्रम में अपनी चार अंगुलियों से हाथ धोना पड़ा । शाइस्ता खाँ के पुत्र, तथा चालीस रक्षकों और अगिनत फोज का कत्ल कर दिया गया । इस घटना के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता को दक्कन के बदले बंगाल का सूबेदार बना दिया और शाहजादा मुअज्जम शाइस्ता की जगह लेने भेजा गया । http://www.youtube.com/watch?v=2V3OVuJxRrQ
सूरत में लूट
इस जीत से शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई । शाइस्ताखान ने अपनी 150000 फौज लेकर राजा शिवाजी का पुरा राज्य जलाकर नष्ट कर दिया था। इस लिए उस का हर्जाना वसूल करने के लिये शिवाजी ने मुगल क्षेत्रों में लूटपाट मचाना आरंभ किया । सूरत उस समय पश्चिमी व्यापारियों का गढ़ था और भारतीय मुसलमानों के लिए हज पर जाने का द्वार । यह एक समृद्ध नगर था और इसका बंदरगाह बहुत महत्वपूर्ण था । शिवाजी ने चार हजार की सेना के साथ छः दिनों तक सूरत के धनाड्य व्यापारियों को लूटा, आम आदमि को नहीं और फिर लौट गए । इस घटना का उल्लेख डच तथा अंग्रेजों ने अपने लेखों में किया है । उस समय तक यूरोपीय व्यापारी भारत तथा अऩ्य एशियाई देशों में बस गये थे । नादिर शाह के भारत पर आक्रमण करने तक (1739) किसी भी य़ूरोपीय शक्ति ने भारतीय मुगल साम्राज्य पर आक्रमण करने की नहीं सोची थी ।
सूरत में शिवाजी की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने इनायत खाँ के स्थान पर गयासुद्दीन खां को सूरत का फौजदार नियुक्त किया । और शहजादा मुअज्जम तथा उपसेनापति राजा जसवंत सिंह की जगह दिलेर खाँ और राजा जयसिंह की नियुक्ति की गई । राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियाँ तथा छोटे सामन्तों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में शिवाजी को हानि होने लगी और हार की सम्भावना को देखते हुए शिवाजी ने सन्धि का प्रस्ताव भेजा । जून 1665 में हुई इस सन्धि के अनुसार शिवाजी 23 दुर्ग मुगलों को दे देंगे और इस तरह उनके पास केवल 12 दुर्ग बच जाएंगे । इन 23 दुर्गों से होने वाली वार्षिक आय 4 लाख हूण थी । बालाघाट और कोंकण के क्षेत्र शिवाजी को मिलेंगे पर उन्हें इसके बदले में 13 किस्तों में 40 लाख हूण अदा करने होंगे । इसके अलावा प्रतिवर्ष 5 लाख हूण का राजस्व भी वे देंगे । शिवाजी स्वयं औरंगजेब के दरबार में होने से मुक्त रहेंगे, पर उनके पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में सेवा करनी होगी । बीजापुर के विरुद्ध शिवाजी मुगलों का साथ देंगे
आगरा में आमंत्रण और पलायन
शिवाजी को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है । इसके विरुद्ध उन्होने अपना रोश भरे दरबार में दिखाया और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाया । औरंगजेब इससे क्षुब्ध हुआ और उसने शिवाजी को नज़रकैद कर दिया और उनपर 5000 सेनिको के पहरे लगा दिए ॥ कुछ ही दिनो बाद [18 अगस्त 1666 को] राजा शिवाजी को मार डालने का इरादा ओंरन्ग्जेब का था । किन्तु अपने अजोड साहस ओर युक्ति के साथ शिवाजी और सम्भाजी दोनों इससे भागने में सफल रहे [17 अगस्त 1666] । सम्भाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ शिवाजी बनारस, गया, पुरी होते हुए सकुशल राजगढ़ पहुँच गए [2 सप्टेम्बर 1666] । इससे मराठों को नवजीवन सा मिल गया । औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उसकी हत्या विष देकर करवा डाली । जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद सन् 1668 में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार संधि की । औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की मान्यता दी । शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5000 की मनसबदारी मिली और शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया । पर, सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुगलों का अधिपत्य बना रहा ।
सन् 1670 में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लूटा । नगर से 132 लाख की सम्पत्ति शिवाजी के हाथ लगी और लौटते समय उन्होंने मुगल सेना को सूरत के पास फिर से हराया।
राज्याभिषेक
शिवाजी का राज्याभिषेक
20 जून 1674 तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुगलों को देने पड़े थे ।
राजकाल | 1674–1680 | |
राज्याभिषेक | 1674 | |
जन्म | 19फरवरी, 1630 | |
शिवनेरी दुर्ग | ||
मृत्यु | 3 अप्रैल, 1680 | |
रायगढ़ | ||
पूर्वाधिकारी | शाहजी | |
उत्तराधिकारी | सम्भाजी | |
पिता | शाहजी | |
माता | जीजाबाई |
पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु ब्राहमणों ने उनका घोर विरोध किया क्योकि वर्ण व्यवस्था के हिसाब से कुर्मी जाति उस समय शुद्र समझी जाती थी । शिवाजी के निजी सचिव बालाजी आवजी ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और उन्होंने ने काशी में गंगाभ नामक ब्राहमण के पास तीन दूतो को भेजा, किन्तु गंगा ने प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योकि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे। उसने कहा की क्षत्रियता का प्रमाण लाओ, तभी वह राज्याभिषेक करेगा | बालाजी आव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवाड़ के सिसोदिया वंश से समबंद्ध के प्रमाण भेजे जिससे संतुष्ट होकर वह रायगढ़ आया | किन्तु यहाँ आने के बाद जब उसने पुन: जाँच पड़ताल की तो उसने प्रमाणों को गलत पाया और राज्याभिषेक से मना कर दिया । अंतत: बाध्य होकर उसे एक लाख रुपये का प्रलोभन दिया गया तब उसने राज्याभिषेक किया । राज्याभिषेक के बाद भी पूना के ब्राहमणों ने शिवाजी को राजा मानने से मना कर दिया। विवश होकर शिवाजी को अष्टप्रधान मंडल की स्थापना करनी पड़ी [2] । विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अतिरिक्त विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया । शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की । काशी के पण्डित विशेश्वर जी भट्ट को इसमें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था । पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया । इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार उनका राज्याभिषेक हुआ । दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए । इस समारोह में हिन्दू स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था । विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था । एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया । इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण विजय के लिए अपने दो सेनाधीशों को शिवाजी के विरूद्ध भेजा, पर वे असफल रहे ।
दक्षिण में दिग्विजय
सन् 1677-78 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया । बम्बई के दक्षिण मे कोंकण, तुङभद्रा नदी के पश्चिम में बेलगाँव एवं धारवाड़ का क्षेत्र, मैसूर, वैलारी, त्रिचूरतथा जिंजी पर अधिकार करने के बाद 4 अप्रैल, 1680 को शिवाजी का देहांत हो गया ।
मृत्यु और उत्तराधिकार
तीन सप्ताह की बीमारी के बाद शिवाजी की मृत्यु अप्रैल 1680 में हुई । उस समय शिवाजी के उत्तराधिकार शम्भाजी को मिले। शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र शम्भाजी थे और दूसी पत्नी से राजाराम नामक एक दूसरा पुत्र था । उस समय राजाराम की आयु मात्र 10 वर्ष थी, अतः मराठों ने शम्भाजी को राजा मान लिया । उस समय औरंगजेब राजा शिवाजी का देहान्त देखकर पूरे भारत पर राज्य करने की अपनी अभिलाशा से अपनी 5,00,000 सेना सागर लेकर दक्षिण भारत जीतने निकला । औरंगजेब ने दक्षिण मे आते ही अदिल्शाही 2 दिनो मे ओर कुतुबशही 1 ही दिनो मे खतम कर दी । पर राजा सम्भाजी के नेतृत्व मे मराठाओ ने 9 साल युद्ध करते हुये, अपनी स्वतन्त्रता बनाये रखी । औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर ने औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । शम्भाजी ने उसको अपने यहाँ शरण दी । औरंगजेब ने अब फिर जोरदार ढंग से शम्भाजी के विरुद्ध आक्रमण करना शुरु किया । उसने अंततः 1689 में ब्राह्मणो की मुखबरी से शम्बाजी को मुकरव खाँ द्वारा बन्दी बना लिया । औरंगजेब ने राजा सम्भाजी को दुर्व्यवहार व दुर्गति कर के मार दिया । अपने राजा को औरंगजेब के हाथ ऐसे मारा हुआ देखकर सभी मराठा स्वराज्य क्रोधित हुए । राजा राम के नेत्रुत्व मे उन्होने अपनी पूरी शक्ति से मुगलों से तीसरा संघर्ष जारी रखा । 1700 इस्वी में राजाराम की मृत्यु हो गई । उसके बाद राजाराम की पत्नी ताराबाई ने 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय की संरक्षिका बनकर राज करती रही । अंतत: 25 वर्ष मराठा स्वराज्य से यूदध लड के थके हुये औरंगजेब, उसी छ्त्रपती शिवाजी के स्वराज्य मे दफन हुये ।
व्यक्तित्व और शासन व्यवस्था
शिवाजी को एक कुशल और प्रबुद्ध सम्राट के रूप में जाना जाता है जब कि उसे अपने बचपन में पारम्परिक शिक्षा कुछ विशेष नहीं मिली थी । पर वह् भारतीय इतिहास और राजनीति में निपुण थे । उसने शुक्राचार्य तथा कौटिल्य को आदर्श मानकर कूटनीति का सहारा लेना, कई बार उचित समझा था । अपने समकालीन मुगलों की तरह वह् भी निरंकुश शासक थ, अर्थात शासन की समूची बागडोर राजा के हाथ में ही थी । पर उसके प्रशासकीय कार्यों में सहयोग के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद थी, जिन्हें अष्टप्रधान कहा जाता था । इसमें मंत्रियों के प्रधान को पेशवा कहते थे, जो राजा के बाद सबसे प्रमुख हस्ती था । अमात्य वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था, तो मंत्री राजा की व्यक्तिगत दैनन्दिनी का ध्यान रखता था । सचिव कार्यालय का काम करते थे जिसमे शाही मुहर लगाना और सन्धि पत्रों का आलेख तैयार करना शामिल होते थे । सुमन्त विदेश मंत्री था । सेना के प्रधान को सेनापति कहते थे । दान और धार्मिक मामलों के प्रमुख को पण्डितराव कहते थे । न्यायाधीश न्यायिक मामलों का प्रधान था ।
मराठा साम्राज्य तीन या चार विभागों में विभक्त था । प्रत्येक प्रान्त में एक सूबेदार था जिसे प्रान्तपति कहा जाता था । हरेक सूबेदार के पास भी एक अष्टप्रधान समिति होती थी । कुछ प्रान्त केवल करदाता थे और प्रशासन के मामले में स्वतंत्र । न्याय व्यवस्था प्राचीन पद्धति पर आधारित थी । शुक्राचार्य, कौटिल्य और हिन्दू धर्म शास्त्रों को आधार मानकर निर्णय दिया जाता था । गाँव के पाटील फौजदारी मुकदमों की जाँच करते थे । राज्य की आय का साधन भूमिकर था पर चौथ और सरदेशमुखी से भी राजस्व वसूला जाता था । चौथ पड़ोसी राज्यों की सुरक्षा की गारंटी के लिये वसूले जाने वाला कर था । और मराठों का सरदेशमुखी होने के कारण शिवाजी को इसी का सरदेशमुखी कर मिलता था ।
धार्मिक नीति
शिवाजी एक समर्पित कट्टर हिन्दु थे, पर वह् धार्मिक सहिष्णुता के पक्षपाती भी थे । उनके साम्राज्य में मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता थी और मुसलमानों को धर्मपरिवर्तन के लिए विवश नहीं किया जाता था । कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया । हिन्दू पण्डितों की तरह मुसलमान सन्तों और फ़कीरों को भी सम्मान प्राप्त था । उनकी सेना में मुसलमानों की संख्या अधिक थी । पर वह् हिन्दू धर्म का संरक्षक थे । पारम्परिक हिन्दू मूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया जाता था । वह् अपने अभियानों का आरंभ भी अक्सर दशहरा के अवसर पर करते थे
2. महाराजकी ओरसे देवीदेवता एवं देवालयोंकी रक्षाका कार्य संपन्न होना !
‘छत्रपति शिवाजी महाराजने पवित्र वेदों की रक्षा की । पुराणों की रक्षा की । जिव्हा द्वारा लिए जाने वाले सुंदर राम नाम को बचाया । हिंदुओं की चोटी की रक्षा की । सिपाहियों की रोटी बचाई । हिंदुओ के यज्ञोपवीत की रक्षा की तथा उनके गले की माला को बचाया । मुगलों को मसल दिया, पातशहाओं को नष्ट किया एवं शत्रुओं को रगड दिया । उनके हाथ में वरदान था । शिवराय ने अपनी तलवार के बल पर राजमर्यादा की रक्षा की । उन्होंने देवी देवता एवं देवालयों की रक्षा की । स्वराज्य में स्वधर्म की रक्षा की । उन्मत्त रावण के लिए जैसे प्रभु रामचंद्र, क्रूर कंस के लिए जैसे भगवान श्रीकृष्ण, वैसे यवनों के लिए छत्रपति शिवराय हैं’ - कवि भूषण
चरित्र
शिवाजी महाराज को अपने पिता से स्वराज कि शिक्षा ही मिली जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी राजे को बन्दी बना लिया तो एक आदर्श पुत्र की भांति उसने बीजापुर के शाह से सन्धि कर शाहजी राजे को छुड़वा लिया । इससे उनके चरित्र में एक उदार अवयव स्पष्ट होता है । उसके बाद उन्होने पिता की हत्या नहीं करवाई जैसा कि अन्य सम्राट किया करते थे । शाहजी राजे की मृत्यु के बाद ही उन्होने अपना राज्याभिषेक करवाया; जबकि वो उस समय तक अपने पिता से स्वतंत्र होकर एक बड़े साम्राज्य के अधिपति हो गये थे । उनके नेतृत्व को सब लोग स्वीकार करते थे, यही कारण है कि उनके शासनकाल में कोई आन्तरिक विद्रोह जैसी प्रमुख घटना नहीं हुई थी ।
वे एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे । कई जगहों पर उन्होने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय भाग लिये थे । किन्तु ये ही उनकी कूट नीति थी, जो हर बार बडे से बडे शत्रु को मात देने मे उनका साथ देती रही।
शिवाजी महाराज की "गनिमी कावा" नामक कूट नीति, जिसमे शत्रु पर अचानक आक्रमण करके उसे हराया जाता है, विलोभ नियत से और आदर सहित याद किया जाता है।
शिवाजी महाराज के गौरव मे ये पंक्तियां लिखी गई है :-
- "शिवरायांचे आठवावे स्वरुप । शिवरायांचा आठवावा साक्षेप ।
- शिवरायांचा आठवावा प्रताप । भूमंडळी ॥"
समर्थ रामदास (1606 - 1682) महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध सन्त थे। वे छत्रपति शिवाजी के गुरु थे। उन्होने मराठी में दासबोध नामक एक ग्रन्थ की रचना की । उन्होंने मोक्ष साधना के साथ ही अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे कश्मीर से कन्याकुमारी तक घूमने लगे। स्वराज्य स्थापना के लिए उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्री शिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य मिलने से और स्वराज्य स्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। जब तक हमने ऐसे वीरों को महानायक माना देश में हकीकत राय से बालक, भगत सिंह, आजाद, नेताजी, उधम सिंह, वीर सावरकर की अनन्त श्रृखला बनी रही। इनका स्थान गाँधी, फ़िल्मी नायकों, अन्य नकली नायकों व उनकी चमक दमक को देकर, दोषपूर्ण व्यवस्था व परिभाषाओं से भ्रमित, भटके इस देश में अब सदाचार नहीं दुराचार व भ्रष्टाचार का साम्राज्य है। देश की व्यवस्था व अपनी सोच को इनके चंगुल से मुक्त किये बिना मुक्ति नहीं।
नकारात्मक मीडिया के सकारात्मक व्यापक विकल्प का सार्थक संकल्प: युग दर्पण मीडिया समूह: YDMS के विविध विषयों के 28 ब्लाग, 5 उपभोक्ता चेनल, अन्य सूत्र सहित राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र युगदर्पण
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तिलक राज रेलन संपादक 9911111611, Yug Darpan Media Samooh
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इतिहास को सही दृष्टी से परखें। गौरव जगाएं, भूलें सुधारें। आइये,
आप ओर हम मिलकर इस दिशा में आगे बढेंगे, देश बड़ेगा । तिलक YDMS
यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था, आज भी इसमें वह गुण,
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