शनिवार, 22 जनवरी 2011
26 जनवरी गणतंत्र दिवस की एकता यात्रा व विरोध के स्वरों का निहितार्थ
सोमवार, 17 जनवरी 2011
स्वभाषा और देशप्रेम ----------------------------------------------------- विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल,(से .नि .)
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‘स्वभाषा’ शब्द में हमारे राष्ट्र के सभी प्रदेशों की मातृभाषाएं सम्मिलित हैं।मातृभाषा तथा राष्ट्रप्रेम पर विचार करने के लिये बहुत सक्षेप में भाषा तथा राष्ट्र की अवधारणाओं पर विचार आवश्यक है।यह एक विचित्र सत्य है, इस सारे विश्व में अनोखा है, कि भारत राष्ट्र एक या दो अपवादों को छोड़कर हमेशा अनेक राजनैतिक देशों या प्रदेशों में बँटा रहा है, यद्यपि उनमें से महत्वाकांक्षी राजाओं का ध्येय समस्त भारत पर राज्य करना होता था।उदाहरणार्थ तमिल प्रदेश के एक राजा के नाम में ही यह स्पष्ट था कि वे हिमालय से लेकर दक्षिण– समुद्री तट तक के राजा है।
जब मै स्कूल में भारत के अनेकों देशों प्रदेशों के राज्यों के इतिहास पढ़ता था तब भी मेरे मन में यह विचार नहीं आया था कि भारत एक राष्ट्र नहीं रहा।1958 में वायुसेना के अंगे्रजी से प्रभावित मित्र बोले कि भारत, आज जैसे भौगोलिक रूप में एक राष्ट्र कभी नहीं था, और न होता, वह तो अंग्रेजी ने हमें भारत प्रदान किया है।उस समय में उनसे असहमत होते हुए उन्हे कुछ तर्क नही दे पाया।किन्तु थोड़ा सा सोचने पर याद आया कि आदि शंकराचार्य क्यों भारत की चारों दिशाओं में, आज से 1100–1200 वर्ष पूर्व की कठिन तथा खतरनाक परिस्थितियों में, गये और चार धाम या तीर्थ स्थान स्थापित किये, फिर वे कश्मीर भी गये, क्यों ? कहीं न कहीं, उन राज्यों की विभिन्न सीमाओं के बावजूद, उस महापुरूष ने आदिकाल से चली आ रही राष्ट्रीय एकता को देखा था और तत्कालीन विदेशी आक्रमणों के कारण, सम्भवतः उसने सोचा कि उस अदृश्य, भावनात्मक, सांस्कृतिक राष्ट्रीय एकता को कुछ भौतिक प्रतीक दे दिये जायेंऌ और अपने परिवार तथा प्राणों की चिन्ता न करता हुआ वह एक असंभव सा कार्य कर गया। भारतीयों की राष्ट्र की अवधारणा मूलतः भावनात्मक है, सांस्कृतिक है। यदि किसी राष्ट्र के नागरिकों में भावनात्मक और सांस्कृतिक एकता की भावना नहीं है तब वे राष्ट्र शक्ति बल पर बनाये जाने के बाद भी टूट जाते हैं, बंग्ला देश, यू .एस ..एस .आर आदि उदाहरण ताजे हैंऌ और यदि हो तब शक्ति द्वारा तोड़ेजाने के बाद भी एक हो जते हैं, यथा जर्मनी। कुछ लोग संभवतः कहना चाहे ं कि भारतीयों की राष्ट्र की अवधारणा आध्यात्मिक भी है, तब मेैै कहूंगा कि आध्यात्मिक दृष्टि से तो भारतीय ‘उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्’ है।
भाषा क्या है ? अधिकांश लोग समझते हैं कि भाषा तो समाज में विचारों के आदान प्रदान का माध्यम है।भाषा की यह परिभाषा तो वैसी हुई कि वृक्ष पीड़, पत्ते, फूल तथा फल का योग है – चूँकि जड़ दिखती नही है उसे भूल गये।भाषा न केवल विचारों को अभिव्यक्त करने का माध्यम है, वरन विचारों, अवधारणाओं, भावनाओं, कल्पनाओं के निर्माण तथा सृजन का माध्यम भी है।आप क्या क्या सोचते हैं और वैसा क्यों सोचते हैं इसमें भी भाषा का बहुत बड़ा हाथ है।साथ ही यह भी सत्य है कि विचार, अवधारणाएं, कल्पनाएं, भावनाएं भी भाषा को पनपाती हैं, विकसित करती है – अर्थात भाषा तथा मन की क्रियाओं में अन्योनाश्रित सम्बंध है।भाषा तथा उस भाषा का समाज, इन दोनो में भी अन्योनाश्रित सम्बंध है, समाज के इतिहास से तथा समाज के भविष्य से भाषा का गहरा सम्वंध रहता है।भाषा संस्कृति की शांतिवाहिनी है।
भाषा और विचार के सम्बंध में पाश्चात्य सोचके अनुसार, मध्ययुग में यह धारणा थी कि विचार तो बौद्धिक क्षमता के ढॉंचे में अन्दर बने पडे. रहते हैं, बस अभिव्यक्ति के समय उन विचारों के लिये शब्द ढूँढ़कर दिये जाते है। जब कि आधुनिक अवधारणा यह है कि विचार का बौद्धिक ढॉचा भी भाषा बनाती है, अर्थात यहॉ तक कि तार्किक सोचने का ढॉचा भी भाषा पर आधारित रहता है। इसलिये मिन्न भाषाओं में न केवल विचार भिन्न होते है, वरन उनको विचारने की शैली भी भिन्न होती है, बल्कि उनका ‘विश्वदर्शन’ भी मिन्न होता है ।हम अपने देश को पितृभूमि न कहकर मातृभूमि कहते हैं।जब हम पृथ्वी को या देश को माता कहते हैं तब उसके प्रति श्रद्धा, प्रेम और आत्मीयता अपने आप आ जाती है।
भाषा सीखना अत्यंत कठिन काम है, यह आपको तब मालूम पडे.गा जब आप अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त कोई विदेशी भाषा सीखेंगे, स्व भाषा सीखने में अर्थात हमारी अन्य राष्ट्रभाषाएं सीखने में यह कठिनाई कम होगीहृ।तब क्या यह आश्चर्य नहीं कि हम मातृभाषा हॅसते, रोते, खेलते कूदते सीख जाते हैं, यह इसलिए कि मातृभाषा हम जीवन जीते हुए सीखते हैं और हमारी बुद्धि में भाषा के, बोलचाल के वाक्यों को सुनकर व्याकरण स्वयं बनाने या समझने की ताकत है।किन्तु यह क्षमता एक व्याकरण बनाने के बाद कम हो जाती है, इसीलिए दूसरी भाषा सीखना कठिनतर हो जाता है।और जब दो भाषाएं एक साथ बच्चे को सीखना पड़े तो, दोनों भाषाओं की व्याकरण के विषय में वह अक्सर भ्रमित रहता है – आप आजकल अपने बच्चों में यह भ्रम स्वयं देख रहे होंगे।
भाषा में ‘रचनाशीलता’ का तत्त्व बहुत अधिक रहता है।किन्तु यह रचनाशीलता व्यक्ति की भाषा में पैठ की गहराई पर निर्भर करती है, इसलिये स्वाभाविक है कि स्व विकसित मातृभाषा में व्यक्ति सर्वाधिक रचनाशील हो सकता है।इसके उदाहरण के लिये हम अपनी तुलना इज़राएल जैसे छोटे से देश से करें तो देखेंगे कि मात्र सन 1948 से उसने विज्ञान में ग्यारह नोबेल पुरस्कार जीते हैं और हमने विदेशी भाषा में पढ़ते हुए विगत डेढ .सौ वर्षों में मात्र एक ॐ इज़राएल अपनी भाषा में न केवल शिक्षा वरन सारा जीवन जीता है।
भाषा संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है। संस्कृति वह है जो संस्कार डालती है, संस्कृति वह क्षमताएं हैं जो हमें समाज से, हमारे जीवन के सभी आवश्यक कारकों के विषय में, विश्व में या समाज में जीवन यापन के लिये मिलती हैं।इनमें जीवनमूल्यों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है, उदाहरणार्थ, हम भारतवासी, पाश्चात्य शिक्षा द्वारा ग्रसे जाने से पूर्व, स्वभावतया पदार्थवादी न होकर अध्यात्मवादी हुआ करते थे, अब हम होते तो पदार्थवादी हैं, कहें चाहे जो कुछ।क्या कोई देशप्रेमी सचमुच में चाहेगा कि हम अपनी सदियों से प्रमाणित जीवन्त संस्कृति को छोड़कर अधकचरी पाश्चात्य भोगवादी संस्कृति अपना लें ! यह विदेशी भाषा का प्रभाव तो है।
हम देखते हैं जीवन, राष्ट्र और जीवनमूल्यों का संस्कृति तथा भाषा से अटूट तथा गहरा संबन्ध है, तब इसमें क्या आश्चर्य कि विजेता अपने उपनिवेशों में साम, दाम, दण्ड, भेद से उपनिवेश की संस्कृति और भाषा पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आक्रमण कर अपनी संस्कृति लाद देते हैं।लार्ड मैकाले ने इसी उद्देश्य से अंग्रेजी को थोपकर हममें से अधिकांश को गुल्लाम बन लिय।ॐ क्या हम उनके सफल आक्रमण से अब भी बचना चाहेंगे, यदि हां, तब कैसे बचेंगे ? जब हमें अपनी संस्कृति का ज्ञान हो, हम उसमें पले ढले हों, तभी हम अपनी संस्कृति की, अपने राष्ट्र की रक्षा कर सकेंगे, उसकी पहचान बनाकर रख सकेंगे।और जब नर्सरी से ही हम अंग्रेजी माध्यम में पढ़ेंगे तब तो हम कहने के लिये राष्ट्र प्रेम की दुहाई देते रहेंगे किन्तु विदेशी संस्कृति में ढलते जाएंगे और अपनी पहचान खोकर राष्ट्र की पहचान भी खो देंगे और विदेश का उपनिवेश बनकर शान से रहेंगे, वैसे ही जैसे एक गुलाम अपने स्वामी का ‘इंपोर्टैड थ्री पीस सूट’ पहनकर शान से इठलाकर चलता है।
विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से . नि .) ई 143, सैक्टर 21, नौएडा, 201301
मंगलवार, 11 जनवरी 2011
लाल बहादुर शास्त्री (जीवन आदर्श, प्रतिभा)
लाल बहादुर शास्त्री (जीवन आदर्श, प्रतिभा)
“ | हर राष्ट्र के जीवन में एक समय ऐसा आता है, जब वह इतिहास के चौराहे पर खड़ा होता है और उसे अपनी दिशा निर्धारित करनी होती है !.किन्तु हमें इसमें कोई कठिनाई या संकोच की आवश्यकता नहीं है! कोई इधर उधर देखना नहीं हमारा मार्ग सीधा व स्पष्ट है! देश में सामाजिक लोकतंत्र के निर्माण से सबको स्वतंत्रता व वैभवशाली बनाते हुए विश्व शांति तथा सभी देशों के साथ मित्रता ! | ” |
"यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था,आजभी इसमें वह गुण,योग्यता व क्षमता विद्यमान है! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010
पं. मदनमोहन मालवीय का सांस्कृतिक अवदान
पं. मदनमोहन मालवीय का सांस्कृतिक अवदान
अभ्युत्थानऽधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यऽहम्
अर्थात् जब भी धर्म का पराभव एवं अधर्म का विस्तार होता है तब तब कोई महाशक्ति धर्म की स्थापना एवं मानवीय मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित होती है। पराधीन राष्ट्र को स्वतंत्र कराने एवं नव निर्माण के संकल्प का बीजवपन भारतीय सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की उर्वरा भूमि पर करने वाले युगपुरुष महामना पं. मदनमोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर 1861 ई. में प्रयाग में हुआ था। यह वह समय था जब अधर्म, अशांति तथा गुलामी की बेडयों में देश जकडा हुआ था। भौतिकवादी दुर्वासनाजनित कल्पनाओं की बयार हर ओर बह रही थी, अध्यात्म से अनुप्राणित सरगम की जगह वातावरण में असत्य एवं अत्याचार से संचालित राजनीति एवं रूढयों की प्रतिष्ठा थी एवं अनैतिकता का आचरण मनुष्य मात्र का सहज कार्य व्यापार था, कुछ ऐसे ही देश काल में भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए, नैतिक मूल्यों के उन्नयन के लिये, असत्य प्रेरित भौतिकवादिता के उन्मूलन के लिये, वेदों और शास्त्रों में निहित धार्मिक सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार के लिए, वसुधैव कुटुम्बकम् की महत् भावना से अनुप्राणित परहित के लिए त्याग एवं प्रेम को स्वीकृति देने वाले गंगाजल के समान स्वच्छ व निर्मल व्यक्तित्व के धनी पं. मदनमोहन मालवीय का आविर्भाव हुआ। मालवीय जी प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक थे, अतः भारतीय संस्कृति की सेवा करने का मूलमंत्र व प्रेरणा स्रोत एक श्लोक से ग्रहण करते हुए उन्होंने अपना सारा जीवन सनातन जीवन मूल्यों के उन्नयन में लगा दिया -
कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामार्तिंनाशनम।।
अर्थात् न मुझे राज्यप्राप्ति की इच्छा है, न स्वर्ग की और न ही फिर से मनुष्य देह धारण करने की। यदि कोई कामना है तो बस यही कि मैं किस प्रकार दुःखों में तपते प्राणियों की पीडा का हरण कर सकूँ।
हिन्दू धर्म एवं भारतीय संस्कृति की यही विशेषता रही है कि जीवन से संबंधित प्रश्नों का उत्तर ढूँढने के लिए अनगिनत महापुरुषों एवं मनीषियों ने अपना पूरा जीवन उत्सर्ग कर दिया। पं. मदनमोहन मालवीय भी ऐसे ही भारत रत्नों में से एक थे। वे अपने समय के उन प्रधान नेताओं में से थे जिन्होंने ’हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान‘ को सर्वोच्च स्थान पर स्थापित कराया। हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग जैसी साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना एवं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा केन्द्रों के निर्माण द्वारा सार्वजनिक हिन्दी आंदोलन का नेतृत्व कर मालवीय जी ने हिन्दी की जो सेवा की है वह असाधारण है। उनके सद्प्रयत्नों से ही हिन्दी को यश, विस्तार और उच्च पद मिला। वे उच्च कोटि के विद्वान्, वक्ता और लेखक थे। यद्यपि लोकमान्य तिलक, राजेन्द्र बाबू और जवाहरलाल नेहरू के मौलिक या अनूदित साहित्य की तरह मालवीय जी ने नहीं लिखा अतः उनके कृतित्व का आकलन करते हुए यह मानना होगा कि हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में उनका योगदान क्रियात्मक अधिक परन्तु रचनात्मक साहित्यकार के रूप में कम है। उनके हिन्दी प्रेम को प्रमाणित करते हुए उनके भाषण का एक अंश प्रस्तुत हैं - ’’भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बडी कठिनाई यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक दुरूह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।‘‘ मालवीय जी विशुद्ध हिन्दी के पक्ष में थे और हिन्दी और हिन्दुस्तानी को एक नहीं मानते थे। सन् 1916 में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना ही उनकी शिक्षा और साहित्य सेवा का वह अमिट शिलालेख है जो इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में सदा चमकता रहेगा। इसके अतिरिक्त ’सनातन धर्मसभा‘ का नेता होने के कारण देश के विभिन्न भागों में उन्होंने सनातन धर्म कॉलेजों की स्थापना की प्रेरणा प्रदान की।
सार्वजनिक जीवन में मालवीय जी का पदार्पण विशेषकर दो घटनाओं के कारण हुआ पहला यह कि अंग्रेजी और उर्दू के बढते प्रभाव के कारण हिन्दी भाषा को क्षति न पहुँचे, इसके लिए जनमत संग्रह करना तथा दूसरा भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मूल तत्त्वों को प्रोत्साहन देना।
हिन्दी की सबसे बडी सेवा मालवीय जी ने इस रूप में की कि उन्होंने उत्तरप्रदेश की अदालतों और दफ्तरों में हिन्दी को व्यवहार योग्य भाषा के रूप में स्वीकृत कराया। इससे पहले केवल उर्दू ही सरकारी दफ्तरों और अदालतों की भाषा थी। सन् 1893 में मालवीय जी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और वे इस सभा के प्रवर्तकों में से थे।
यद्यपि धार्मिक एवं सामाजिक विषयों पर उनके आर्यसमाज से गहरे मतभेद थे क्योंकि वे समस्त कर्मकाण्ड, रीतिरिवाज एवं मूर्तिपूजा आदि को हिन्दू धर्म का मौलिक अंग मानते थे फिर भी हिन्दी के प्रश्न पर दोनों का मतैक्य था। मालवीय जी एक सफल पत्रकार भी थे और हिन्दी पत्रकारिता से ही उन्होंने जीवन के कर्म क्षेत्र में पदार्पण किया। ’लीडर‘ और हिन्दुस्तान टाइम्स‘ की स्थापना का श्रेय भी मालवीय जी को है। कुछ दिनों को लिए उन्होंने ’मर्यादा‘ नाम से एक समाचार पत्र भी निकाला। वे पत्रों के द्वारा जनता में प्रचार करने में बहुत विश्वास रखते थे और स्वयं कई वर्षों तक अनेक पत्रों के सम्पादक भी रहे। कई साहित्यिक एवं धार्मिक संस्थाओं से भी उनका सम्फ रहा। सनातन धर्म सभा के सिद्धान्तों को प्रचारित करने के लिए मालवीय जी के प्रयत्नों से ही काशी से ’सनातन धर्म‘ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इस तरह से हिन्दी भाषा के स्तर को ऊँचा करने का उनका सद्प्रयास रंग लाया और शिक्षा सुधार के क्षेत्र में मालवीय जी के प्रयत्न अविस्मरणीय हो गये।
वे पुस्तकीय शिक्षा की बजाय प्रौद्योगिक शिक्षा के समर्थक थे। वे चाहते थे कि वैज्ञानिक ढंग की शिक्षा अपने देश में भी प्रारम्भ की जाये और प्रयोगशाला तथा वर्कशाप में विद्यार्थियों को अपने हाथों से प्रयोग करने का अभ्यास कराया जाये, उनमें शिक्षा से प्रेरणा की शक्ति उत्पन्न की जाये, उनके ज्ञान को यथातथ्य तथा जीवनोपयोगी बनाया जाये। उनकी धारणा थी कि भारत अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में तब तक सर्वथा असमर्थ रहेगा जब तक वह वर्तमान वैज्ञानिक अन्वेषण का अध्ययन नियमित और अनिवार्य नहीं बनाता। वे प्राचीन आयुर्वेद के साथ अर्वाचीन शल्य शिक्षा का मेल, आयुर्वेदिक औषधियों का वैज्ञानिक परीक्षण तथा उन पर अनुसंधान, विभिन्न विषयों पर प्राच्य और आधुनिक ज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन, प्राचीन भारतीय संस्कृति, दर्शन साहित्य तथा इतिहास के गहन अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ आधुनिक मनोविज्ञान, नीतिविज्ञान, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन, वेद-वेदांत, संस्कृत साहित्य और वाङ्मय की शिक्षा के अतिरिक्त आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, धातु विज्ञान, खनन विज्ञान, विद्युत एवं यांत्रिक इंजीनियरिंग, कृषि विज्ञान आदि विषयों का अध्ययन-अध्यापन भी चाहते थे। इस प्रकार मुख्य रूप से सामाजिक स्थिरता एवं समरसता हेतु मालवीय जी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था तथा परिवर्तन और आधुनिकता हेतु आधुनिक वैज्ञानिक प्राकृतिक विज्ञान की शिक्षा व्यवस्था के पक्षधर थे क्योंकि उनके विचार में ’व्यक्ति‘ में मानवोचित विकास तथा प्रगति एवं कार्यशीलता के लिए उपर्युक्त शिक्षा आवश्यक है। उनका विचार था कि धर्म, दर्शन तथा कला की शिक्षा मनुष्य के सिर की भाँति है और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की शिक्षा उसके धड के समान
है, अतः उक्त दोनों प्रकार की शिक्षा एक दूसरे की पूरक है। मालवीय जी शिक्षा को चरित्र विकास का साधन मानते थे और चाहते थे कि शिक्षा द्वारा ’व्यक्ति‘ का सर्वांगीण विकास हो। वे सह शिक्षा के समर्थक थे। उनके अनुसार ’’स्त्रियों में पुरुषोचित और पुरुषों में स्त्रियोचित गुण समवयस्क सह शिक्षा द्वारा ही आ सकता है।‘‘ उस जमाने में इतने प्रगतिशील विचार रखना मालवीय जी की अत्याधुनिक व दूरदर्शितापूर्ण वैचारिकता का प्रमाण है।
मालवीय जी शिक्षा के साथ-साथ चरित्र निर्माण पर भी जोर देते थे। कहा भी गया है चरित्र निर्माणं ज्ञान विज्ञानात् श्रेष्ठतरम्। चरित्र के महत्त्व के प्रसंग में मालवीय जी ने एक जगह लिखा है - ’’धर्म, चरित्र निर्माण तथा सांसारिक सुख का सीधा मार्ग है। इससे मनुष्यों में उच्चकोटि की निःस्वार्थ सेवा की भावना आती है जिससे समाज तथा राष्ट्र का कल्याण होता है। उनके अनुसार शिक्षा प्रणाली का प्रधान ध्येय नवयुवकों को योग्य नागरिक बनाना तथा जनता की बुद्धि का विकास करना है।‘‘
मालवीय जी स्त्री शिक्षा के भी प्रबल हिमायती थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा था कि ’’पुरुषों की शिक्षा से स्त्रियों की शिक्षा का अधिक महत्त्व है क्योंकि वे ही भारत की भावी सन्तति की माता हैं, वे हमारे भावी राजनीतिज्ञों, विद्वानों, तत्त्वज्ञानियों, व्यापार तथा कला-कौशल के नेताओं आदि की प्रथम शिक्षिका हैं, उनकी शिक्षा का प्रभाव भारत के भावी नागरिकों की शिक्षा पर विशेष रूप से पडेगा।‘‘ महाभारत में कहा गया है - ’’माता के समान कोई शिक्षक नहीं है।‘‘ इस प्रकार स्त्री शिक्षा के संदर्भ में मालवीय जी ने एक परिवर्तनवादी आधुनिक विचारदृष्टि तत्कालीन समाज के सामने रखी। मालवीय जी की शैक्षणिक विचारधारा प्रगतिशील और आधुनिक है जो एक दूरदर्शी शिक्षाशास्त्री के रूप में भी उनकी उल्लेखनीय भूमिका को राष्ट्रीय आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में स्थापित करती है।
पं. मदनमोहन मालवीय भारतीय संस्कृति के अद्वितीय उपासक एवं प्रतीक पुरुष थे। ब्रह्मचर्य पालन एवं गायत्री को स्वदेश भक्ति का अभिन्न अंग मानते हुए उन्होंने युवकों को भीष्म के समान व्रतनिष्ठ, कृष्ण के समान नीतिज्ञ एवं परशुराम के समान अन्याय एवं पराधीनता की बेडयों को काटने के लिए अपेक्षित आक्रोश का आह्वान किया। वे मानते थे कि बगैर धार्मिक उत्थान के राष्ट्र का उत्थान असंभव है। महामना द्वारा प्रतिपादित धर्म किसी संकीर्णवादी सांप्रदायिक दृष्टि का नहीं अपितु मानवमात्र को आत्मवत् देखने के विचार का पक्षधर था। अपने एक लेख में इसी दृष्टि के प्रतिपादन के लिए उन्होंने शास्त्र निर्दिष्ट एक श्लोक का उल्लेख किया है।
मातृवत्परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्
आत्मवत्सर्वभूतेष, यः पश्यति स पण्डितः
यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था,आजभी इसमें वह गुण,योग्यता व क्षमता विद्यमान है! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक