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‘स्वभाषा’ शब्द में हमारे राष्ट्र के सभी प्रदेशों की मातृभाषाएं सम्मिलित हैं।मातृभाषा तथा राष्ट्रप्रेम पर विचार करने के लिये बहुत सक्षेप में भाषा तथा राष्ट्र की अवधारणाओं पर विचार आवश्यक है।यह एक विचित्र सत्य है, इस सारे विश्व में अनोखा है, कि भारत राष्ट्र एक या दो अपवादों को छोड़कर हमेशा अनेक राजनैतिक देशों या प्रदेशों में बँटा रहा है, यद्यपि उनमें से महत्वाकांक्षी राजाओं का ध्येय समस्त भारत पर राज्य करना होता था।उदाहरणार्थ तमिल प्रदेश के एक राजा के नाम में ही यह स्पष्ट था कि वे हिमालय से लेकर दक्षिण– समुद्री तट तक के राजा है।
जब मै स्कूल में भारत के अनेकों देशों प्रदेशों के राज्यों के इतिहास पढ़ता था तब भी मेरे मन में यह विचार नहीं आया था कि भारत एक राष्ट्र नहीं रहा।1958 में वायुसेना के अंगे्रजी से प्रभावित मित्र बोले कि भारत, आज जैसे भौगोलिक रूप में एक राष्ट्र कभी नहीं था, और न होता, वह तो अंग्रेजी ने हमें भारत प्रदान किया है।उस समय में उनसे असहमत होते हुए उन्हे कुछ तर्क नही दे पाया।किन्तु थोड़ा सा सोचने पर याद आया कि आदि शंकराचार्य क्यों भारत की चारों दिशाओं में, आज से 1100–1200 वर्ष पूर्व की कठिन तथा खतरनाक परिस्थितियों में, गये और चार धाम या तीर्थ स्थान स्थापित किये, फिर वे कश्मीर भी गये, क्यों ? कहीं न कहीं, उन राज्यों की विभिन्न सीमाओं के बावजूद, उस महापुरूष ने आदिकाल से चली आ रही राष्ट्रीय एकता को देखा था और तत्कालीन विदेशी आक्रमणों के कारण, सम्भवतः उसने सोचा कि उस अदृश्य, भावनात्मक, सांस्कृतिक राष्ट्रीय एकता को कुछ भौतिक प्रतीक दे दिये जायेंऌ और अपने परिवार तथा प्राणों की चिन्ता न करता हुआ वह एक असंभव सा कार्य कर गया। भारतीयों की राष्ट्र की अवधारणा मूलतः भावनात्मक है, सांस्कृतिक है। यदि किसी राष्ट्र के नागरिकों में भावनात्मक और सांस्कृतिक एकता की भावना नहीं है तब वे राष्ट्र शक्ति बल पर बनाये जाने के बाद भी टूट जाते हैं, बंग्ला देश, यू .एस ..एस .आर आदि उदाहरण ताजे हैंऌ और यदि हो तब शक्ति द्वारा तोड़ेजाने के बाद भी एक हो जते हैं, यथा जर्मनी। कुछ लोग संभवतः कहना चाहे ं कि भारतीयों की राष्ट्र की अवधारणा आध्यात्मिक भी है, तब मेैै कहूंगा कि आध्यात्मिक दृष्टि से तो भारतीय ‘उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्’ है।
भाषा क्या है ? अधिकांश लोग समझते हैं कि भाषा तो समाज में विचारों के आदान प्रदान का माध्यम है।भाषा की यह परिभाषा तो वैसी हुई कि वृक्ष पीड़, पत्ते, फूल तथा फल का योग है – चूँकि जड़ दिखती नही है उसे भूल गये।भाषा न केवल विचारों को अभिव्यक्त करने का माध्यम है, वरन विचारों, अवधारणाओं, भावनाओं, कल्पनाओं के निर्माण तथा सृजन का माध्यम भी है।आप क्या क्या सोचते हैं और वैसा क्यों सोचते हैं इसमें भी भाषा का बहुत बड़ा हाथ है।साथ ही यह भी सत्य है कि विचार, अवधारणाएं, कल्पनाएं, भावनाएं भी भाषा को पनपाती हैं, विकसित करती है – अर्थात भाषा तथा मन की क्रियाओं में अन्योनाश्रित सम्बंध है।भाषा तथा उस भाषा का समाज, इन दोनो में भी अन्योनाश्रित सम्बंध है, समाज के इतिहास से तथा समाज के भविष्य से भाषा का गहरा सम्वंध रहता है।भाषा संस्कृति की शांतिवाहिनी है।
भाषा और विचार के सम्बंध में पाश्चात्य सोचके अनुसार, मध्ययुग में यह धारणा थी कि विचार तो बौद्धिक क्षमता के ढॉंचे में अन्दर बने पडे. रहते हैं, बस अभिव्यक्ति के समय उन विचारों के लिये शब्द ढूँढ़कर दिये जाते है। जब कि आधुनिक अवधारणा यह है कि विचार का बौद्धिक ढॉचा भी भाषा बनाती है, अर्थात यहॉ तक कि तार्किक सोचने का ढॉचा भी भाषा पर आधारित रहता है। इसलिये मिन्न भाषाओं में न केवल विचार भिन्न होते है, वरन उनको विचारने की शैली भी भिन्न होती है, बल्कि उनका ‘विश्वदर्शन’ भी मिन्न होता है ।हम अपने देश को पितृभूमि न कहकर मातृभूमि कहते हैं।जब हम पृथ्वी को या देश को माता कहते हैं तब उसके प्रति श्रद्धा, प्रेम और आत्मीयता अपने आप आ जाती है।
भाषा सीखना अत्यंत कठिन काम है, यह आपको तब मालूम पडे.गा जब आप अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त कोई विदेशी भाषा सीखेंगे, स्व भाषा सीखने में अर्थात हमारी अन्य राष्ट्रभाषाएं सीखने में यह कठिनाई कम होगीहृ।तब क्या यह आश्चर्य नहीं कि हम मातृभाषा हॅसते, रोते, खेलते कूदते सीख जाते हैं, यह इसलिए कि मातृभाषा हम जीवन जीते हुए सीखते हैं और हमारी बुद्धि में भाषा के, बोलचाल के वाक्यों को सुनकर व्याकरण स्वयं बनाने या समझने की ताकत है।किन्तु यह क्षमता एक व्याकरण बनाने के बाद कम हो जाती है, इसीलिए दूसरी भाषा सीखना कठिनतर हो जाता है।और जब दो भाषाएं एक साथ बच्चे को सीखना पड़े तो, दोनों भाषाओं की व्याकरण के विषय में वह अक्सर भ्रमित रहता है – आप आजकल अपने बच्चों में यह भ्रम स्वयं देख रहे होंगे।
भाषा में ‘रचनाशीलता’ का तत्त्व बहुत अधिक रहता है।किन्तु यह रचनाशीलता व्यक्ति की भाषा में पैठ की गहराई पर निर्भर करती है, इसलिये स्वाभाविक है कि स्व विकसित मातृभाषा में व्यक्ति सर्वाधिक रचनाशील हो सकता है।इसके उदाहरण के लिये हम अपनी तुलना इज़राएल जैसे छोटे से देश से करें तो देखेंगे कि मात्र सन 1948 से उसने विज्ञान में ग्यारह नोबेल पुरस्कार जीते हैं और हमने विदेशी भाषा में पढ़ते हुए विगत डेढ .सौ वर्षों में मात्र एक ॐ इज़राएल अपनी भाषा में न केवल शिक्षा वरन सारा जीवन जीता है।
भाषा संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है। संस्कृति वह है जो संस्कार डालती है, संस्कृति वह क्षमताएं हैं जो हमें समाज से, हमारे जीवन के सभी आवश्यक कारकों के विषय में, विश्व में या समाज में जीवन यापन के लिये मिलती हैं।इनमें जीवनमूल्यों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है, उदाहरणार्थ, हम भारतवासी, पाश्चात्य शिक्षा द्वारा ग्रसे जाने से पूर्व, स्वभावतया पदार्थवादी न होकर अध्यात्मवादी हुआ करते थे, अब हम होते तो पदार्थवादी हैं, कहें चाहे जो कुछ।क्या कोई देशप्रेमी सचमुच में चाहेगा कि हम अपनी सदियों से प्रमाणित जीवन्त संस्कृति को छोड़कर अधकचरी पाश्चात्य भोगवादी संस्कृति अपना लें ! यह विदेशी भाषा का प्रभाव तो है।
हम देखते हैं जीवन, राष्ट्र और जीवनमूल्यों का संस्कृति तथा भाषा से अटूट तथा गहरा संबन्ध है, तब इसमें क्या आश्चर्य कि विजेता अपने उपनिवेशों में साम, दाम, दण्ड, भेद से उपनिवेश की संस्कृति और भाषा पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आक्रमण कर अपनी संस्कृति लाद देते हैं।लार्ड मैकाले ने इसी उद्देश्य से अंग्रेजी को थोपकर हममें से अधिकांश को गुल्लाम बन लिय।ॐ क्या हम उनके सफल आक्रमण से अब भी बचना चाहेंगे, यदि हां, तब कैसे बचेंगे ? जब हमें अपनी संस्कृति का ज्ञान हो, हम उसमें पले ढले हों, तभी हम अपनी संस्कृति की, अपने राष्ट्र की रक्षा कर सकेंगे, उसकी पहचान बनाकर रख सकेंगे।और जब नर्सरी से ही हम अंग्रेजी माध्यम में पढ़ेंगे तब तो हम कहने के लिये राष्ट्र प्रेम की दुहाई देते रहेंगे किन्तु विदेशी संस्कृति में ढलते जाएंगे और अपनी पहचान खोकर राष्ट्र की पहचान भी खो देंगे और विदेश का उपनिवेश बनकर शान से रहेंगे, वैसे ही जैसे एक गुलाम अपने स्वामी का ‘इंपोर्टैड थ्री पीस सूट’ पहनकर शान से इठलाकर चलता है।
विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से . नि .) ई 143, सैक्टर 21, नौएडा, 201301